________________
[ २१
"बन्धौ द्विविधः वैनसिकः प्रायोगिकश्च । पुरुषप्रयोगानपेक्षो वैनसिकः, तद्यथा-स्निग्धरूक्षत्वगुणनिमित्तो विद्य दुल्काजलाधाराग्नीन्द्रधनुरादिविषयः । पुरुषप्रयोगनिमित्तः प्रायोगिकः प्रजीवविषय: जीचाजीवविषयश्चेति द्विधा भिन्नः । तत्राजीवविषयो जनुकाष्ठादिलक्षणः । जीवाजीवविषयः कर्मनोकर्मबन्धः (स० सि० प्र० 5 सू० 24)
· वन्ध दो प्रकार का है-वैनसिक और प्रायोगिक । जिस बन्ध में पुरुष के प्रयोग की अपेक्षा नहीं पड़ती वह वैससिक बन्ध है । जैसे-स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से होने वाला बिजली, उल्का, मेघ, अग्नि और इन्द्रधनुष आदि का विषयभूत वन्ध वैनसिक वन्ध है और जो बन्ध पुरुप के प्रयोग के निमित्त से होता है वह प्रायोगिक बन्ध है, इसके दो भेद हैं --- अजीव सम्बन्धी बन्ध और जीवाजीव सम्बन्धी वन्ध । लाख और लकड़ी आदि का अजीव सम्बन्धी प्रायोगिक वन्ध है तथा कर्म और नोकर्म का जो जीव से बन्ध होता है वह जीवाजीव सम्बन्धी प्रायोगिक वन्ध है।
यह बन्ध विषयक उद्धरण मात्र है । इसी न्याय में लोक में जितने भी कार्य होते हैं उनके विषय में भी समझ लेना चाहिये । प्रायोगिक विवक्षित कार्योंके विपय में समय सार की इस गाथा का अपना महत्व हैं । यथा
जीवो रण करेदि घटं व पटं णेव सेसगे दवे ।
जोगुवजोगा उप्पादगा य तेसि हवादि कत्ता ।।१०० ।। इस गाथा का भावार्थ लिखते हुए पं. जयचन्द जी कहते हैं
भावार्थ-योग अर्थात् आत्म प्रदेशों का परिस्पन्दन (चलन) और उपयोग अर्थात् ज्ञान का कषायों के साथ उपयुक्त होना जुड़ना । वह योग और उपयोग घटादि और क्रोधादि के निमित्त हैं, इस लिए उन्हें घटादि और क्रोधादि का निमित्तकर्ता कहा जावे, परन्तु प्रात्मा को तो उनका कर्ता नहीं कहा जा सकता । प्रात्मा को संसार अवस्था में अज्ञान से मात्र योगउपयोग का कर्ता कहा जा सकता है।
इससे भी हम जानते हैं कि संमार के सव कार्यों के विस्रित्त विलसा और प्रयोग के भेद से दो ही प्रकार के होते हैं । जिन्हें व्याकरणाचार्य जी उदासीन और प्रेरक निमित्त कहते हैं उनका इन दोनों निमित्तों में अन्तर्भाव हो जाता है । इतना आवश्यक है कि जीव के योग और उपयोग को निमित्त कर जो कार्य होते हैं उन्हें ही प्रायोगिक कार्य कहते हैं। यदि व्याकरणाचार्यजी उन्हें प्रेरक-निमित्त कहना चाहें तो भले कहें । शेष सब विलसा निमित्त कहे जायेंगे । चाहे वह ध्वजा का फड़कना ही क्यों न हो । बादल गरजते हैं यह भी विस्रसा-निमित्तों की अपेक्षा कहा जायगा । आगम में उदासीन निमित्तों का प्रयोग मात्र धर्मादि द्रव्यों की निमित्तता के अर्थ में ही दृष्टिगोचर होता है । इसलिए पागम में जो दो प्रकार के निमित्त बतलाये हैं-विसा निमित्त और प्रयोग निमित्त वे ही समीचीन हैं। किन्तु समीक्षक महानुभाव ने समीक्षा पृ. 15 में जो यह लिखा है कि-पूर्वपक्ष मान्य दोनों निमित्तों के लक्षण सम्यक् हैं । सो उनका ऐसा लिखना समीचीन नहीं है, क्योंकि जिन्हें प्रेरक निमित्त कहते हैं वे यदि जीवाजीव सम्बन्धी हैं, तो वे अवश्य ही प्रायोगिक निमित्त में अन्तर्भूत हो जाते हैं, शेप सव वैनसिक निमित्त हैं।