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आगे स्वयं उस पक्ष ने यह स्वीकार किया है "व्यवहारधर्म का मोक्ष के साथ जो साध्यसाधक भाव है, वह अयथार्थ अर्थात् उपचरित सत् है ।" सो उसके इस कथन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वह पक्ष व्यवहारधर्म को स्वभावभूत आत्मा का कहना इसे मात्र कल्पना का विषय मानता है, अन्यथा वह ऐसे सम्बन्ध को अयथार्थ अर्थात् उपचरित सत् कभी भी नहीं लिखता । शेष सब कथन उसका अपना विकल्प मात्र है।
हमने जो व्यवहारधर्म को जीव का परिणाम नहीं माना है, वह स्वभावभूत जीव की अपेक्षा से ही नहीं माना है, क्योंकि शुद्धनय की विवक्षा में स्वभावभूत जीव को ही स्वानुभूति को उसका विषय माना गया है, ऐसा यहां समझना चाहिए।
निश्चयधर्म की उत्पत्ति स्वभाव के पालम्बन से ही होती है. इसलिए व्यवहारधर्म निश्चयधर्म की उत्पत्ति में अकिंचित्कर है, ऐसा यदि माना जाय तो इसमें क्या आपत्ति है ?
(२) त. च. पृ. १४३ के आधार पर जो चर्चा चली है,, उसमें उस पक्ष का यह कहना कि "व्यवहाररत्नत्रयस्वरूप व्यवहारधर्म निश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्म की उत्पत्ति में निमित्त (सहायक) रूप से साधक है।" सो यह कथन असद्भूत व्यवहारनय से ही आगम में स्वीकार किया गया है । फिर भी वह पक्ष निश्चय और व्यवहार दोनों धर्मों के साध्य-साधक भाव को सद्भूत व्यवहारनय का विषय मानता है, यह उसकी भूल है, क्योंकि निमित्त-नैमित्तिक संबंध दों में होता है। इस अपेक्षा से उसे सद्भूत व्यवहारनय का विपय मानना संगत नहीं माना जा सकता।
स. पृ. २६२ पर उस पक्ष ने समयसार के अनेक प्रमाण उपस्थित कर जिन बातों का निर्देश किया है, उनमें से मुख्यरूप से विचारणीय गाथा ८५ है । गाथा ८७ में जो मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति को जीवभाव कहा गया है, वह जीव की अज्ञानदशा की अपेक्षा ही कहा गया है, स्वभावभूत जीव की अपेक्षा से नहीं । जैसे ज्ञानादिगुण जीव में सदा काल पाये जाते हैं, अतः वे भेद विवक्षा में जीव के सद्भूत व्यवहारनय से कहे गये हैं, उसी प्रकार पराश्रित व्यवहारधर्म भी जीव में भेद विवक्षा में जीव के यदि सदाकाल पाया जाता तो उसे सद्भूत व्यवहारनय का विषय मानने में कोई
बाघा नहीं पाती। पर जिस प्रकार पापभाव को छोड़कर जीव क्रम से स्वभावधर्म को-प्राप्त होता है, -- 'उसी प्रकार व्यवहारधर्म के छूटने पर जीव को स्वभावधर्म की प्राप्ति होती है । फिर भी यदि पूर्वपक्ष
राग-द्वेष और मोह को जीव के सद्भूत व्यवहारनय से मानना इष्ट समझता है तो उसे पापभाव को भी सद्भूत व्यवहारनय से जीव का मान लेना चाहिए, क्योंकि दोनों भी राग-द्वेष और मोह के परिणाम हैं।
यद्यपि यह हम मानते हैं कि अज्ञानभाव के कारण जीव भी स्वयं रागन्दप-मोह रूप परिणमता है, कर्म के उदय से वह राग-द्वेष मोह रूप नहीं परिणमता, क्योंकि कर्म का उदय तो निमित्त मात्र है। फिर भी मोक्षमार्ग में जो उनको परभाव कहा गया है, वह स्वभावभूत आत्मा की प्राप्ति की विवक्षा में ही कहा गया है। इसलिए मोक्षमार्ग में व्यवहारधर्म को जीव का कहना यह अंसद्भूत व्यवहारनय से ही संगत प्रतीत होता है, सद्भूत व्यवहारनय से नहीं । ऐसा यहाँ - समझना चाहिए । इसके लिए विशेष रूप से देखो जैनतत्व मीमांसा पृ. २५०-२५१ आदि ।
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