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________________ १६७ , अपेक्षा आठवें गुणस्थान से शुक्लध्यान कहा है, क्योंकि आठवें गुणस्थान से लेकर राग का उद्यम होने पर भी जीव का उपयोग श्रात्मांश्रित हो प्रवर्तता है, रागांश्रित नहीं प्रवर्तता । आगे स. पू. २७० पर उसने जो यह लिखा है कि "शुभोपयोग स्वयं साक्षात् प्रास्रव है और उक्त प्रकार के बन्ध का कारण नहीं होता । अपितु शुभोपयोग से प्रभावित योग ही श्रोत्रव और उक्त प्रकार के बन्ध का साक्षात् कारण होता है तथा योग का निरोध संवर ́ का कारण होता है । और निर्जरा तो क्रियावी शक्ति के परिणमन स्वरूप तपश्चरण से श्रविपाकरूप से होती है व निषेकरूप से सविप्राकरूप से स्वतः हुआ करती है । सम्यग्दर्शनादिरूप विशुद्धि संवर - निर्जरा का कारण नहीं होती है ।" #%. " I सो उसका समाधान यह है कि योग को प्रास्रव स्वीकार करके उससे द्रव्यकर्म का संव भले ही स्वीकार किया जाय पर स्थितिबंध और अनुभागबन्ध का प्रमुख कारणं अशुभोपयोग या शुभोपयोग या अशुद्ध उपयोग ही है और वह मुख्यता से बुद्धिपूर्वक राग के होने पर ही होता है । बुद्धिपूर्वक अवस्था में स्थिति भिन्न प्रकार को भी होने की संभावना बनी रहती है - ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए, इसमें संदेह नहीं । इसीलिए समयसार का वचन है - "रत्तोवंषदि कम्मं "। आस्रव में केवल योग का ही ग्रहणं नहीं है, अपितु उसमें शुभोपयोग अशुभोपयोग या अशुद्ध उपयोग, इन सबका ग्रहण हो जाता है । इसी से इस संसारी जीव की अशुद्ध परिणति बनी रहती हैं । अन्यथा ११ वें आदि गुणस्थानों में केवल योग का संभाव होने पर स्थितिबंध और अनुभागवन् भी होना चाहिए 1 विचार कर देखा जाय तो सविकल्प अवस्था में योग में भेद का कारण शुभ और अशुभ भाव ही है । वैसे स्वयं योग सामान्य से एक प्रकार का है, इसलिए संवर और निर्जरा का मुख्य कारण रत्नत्रय ही जानना चाहिये । तत्वार्थसूत्र अ. १ सूत्र १ में इसीलिए रत्नत्रय को मोक्ष का कारण (मोक्षमार्ग ) कहा गया है । समीक्षक ने जो तपश्चरण को निर्जरा का कारण कहा है तो उससे क्रियावतो शक्ति के परिणमन को मुख्यतया से ग्रहण न कर इच्छानिरोधरूप तप को ही ग्रहण करना चाहिये । उपयोग के आत्मस्वरूप के अनुभव के कालसे ही इच्छा का निरोध होना संभव है और यही परिणाम स्वयं संवर और निर्जरास्वरूप होने से वह स्वयं संवर और निर्जरा का कारण, भी है। 4 "त. च. पू. १२१ के आंधार से स. पू. १३९-४० में उसने जो कुछ भी लिखा है, वह इसीलिये ठीक नहीं है, क्योकि योग का निरोध तो तेरहवें गुणस्थानतक नहीं होता । शुभोपयोग का निरोध श्रवश्य ही ६ वें गुणस्थान में हो जाता है । इसलिये यहाँ तक यथायोग्य मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग यथासंभव ये बंध के कारण हैं। आगे मात्र कषायं और योग बन्ध के कारण हैं, यह आगम है । उसका कर्त्तव्य है कि वह अपने विचारों के अनुसार आगम गढ़ने का प्रयत्न न करें, किन्तु आगम के अनुसार अपने विचारों को मूर्तरूप देने की कृपा करे । त. च. पृ. १२१ आदि में हमने जो श्रात्मानुभूति के चतुर्थादि गुणस्थानों में होने का विधान किया है, सो वह सप्रमाण है; क्योंकि सम्यग्दर्शन स्वभावपर्याय है, इसीलिए वह स्वभाव के आलम्बन
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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