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________________ १६१ रूप और अन्त में शुभ से भी निवृत्ति रूप व्यवहारधर्मरूप परिणाम" यह जो वाक्य समीक्षक ने लिखा है, वह बड़ा ही भ्रामक ज्ञात होता है, क्योंकि अशुद्ध परिणाम में अशुभ और शुभ दोनों परिणामों का अन्तर्भाव होता है, इसलिये अशुद्ध अर्थात् शुभ और अशुभ दोनों परिणामों से निवृत्तिपूर्वक तो शुद्ध परिणाम ही होगा। अशुद्ध से निवृत्तिपूर्वक शुभ परिणाम कैसे होगा, यह समझ के बाहर है, पागम भी ऐसा नहीं है । देखो प्रवचनसार गापा १८१ । सुह परिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भरिणदमण्रणेसे । परिणामो रगण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥११॥ दूसरे उसमें जो शुभ से भी निवृत्तिरूप व्यवहारधर्म परिणाम लिखा है, वह भी कल्पना मात्र है, क्योंकि शुभ से निवृत्तिरूप व्यवहारधर्म नहीं होता, किन्तु उससे निवृत्तिरूप निश्चयधर्म ही होता है । कदाचित् वह यह कहे कि शुभ से निवृत्ति होकर अशुभ में भी जीव जा सकता है, सो यह कहने की बात नहीं है। (६) समीक्षक.का जो यह कहना है कि "शुभभाव और शुद्ध भाव के अतिरिक्त तीसरी जीवदया व्यवहारधर्मरूप भी होती है और उस व्यवहारधर्मरूप जीवदया का ही अन्तर्भाव पूर्वोक्त प्रकार प्रास्रव और वन्ध के साथ संवर और निर्जरा तत्व में होता है, शुद्ध भाव रूप जीवदया का नहीं ।” सो आगम तो ऐसा नहीं है, क्योंकि शुभ भाव से भिन्न कोई तीसरा जीवदयारूप व्यवहारधर्म नहीं है, किन्तु शुभभाव ही व्यवहारधर्म है, चाहे वह जीवदयारूप हो या अन्य किसी प्रकार का क्यों न हो । उसने अन्त में "शुद्धभावरूप जीवदया का नहीं।" यह जो वाक्य लिखा है, सो इससे वह क्या कहना चाहता है - यह समझ के बाहर है। शुद्धभावरूप जो स्वदया है, वह तो साक्षात संवरनिर्जरारूप होकर संवर निर्जरा का कारण भी होती है, इसमें अन्य कोई विकल्प भी संभव नहीं है । घवल पुस्तक १३ में करूणा को जो जीवरूप भाव कहा है, उसमें विवक्षा विशेप ही कारण है। उससे कोई जीवदयारूप व्यवहारधर्म जीव का स्वभाव नहीं सिद्ध हो जायगा । करुणा जीवस्वभाव है, उसका विशेष खुलासा त. च. पृ. ११५ में किया ही है। (१०) समीक्षक ने भावसंग्रह की "सम्मादिट्ठीपुण्णं" इत्यादि ४०७ संख्याक गाथा उपस्थित कर उसके आधार पर जो पुण्य को संदर-निर्जरा का कारण लिखा है, सो उसका ऐसा लिखना इसलिये असंगत है; क्योंकि पुण्य पराश्रित भाव या संयोगीभाव है और मोक्ष जीव का स्वाश्रित परिणाम है । ऐसी अवस्था में पुण्यभाव मोक्ष का कारण माना जाय, उसका अर्थ है कि मिथ्यात्व सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है। हमने जो त. च. पृ. ११५ में "नय विशेप से यह वचन लिखा है" वह योग्य ही लिखा है। यह दुर्भाग्य की बात है कि समीक्षक बस्तुस्थिति को समझे विना कुछ भी लिखता रहता है । लगता है कि उसे तत्त्वहानि की चिन्ता नहीं, अपने पक्ष का पोपरण कैसे हो, मात्र इतनी ही चिन्ता है । (११) उपसंहार रूप में त. च. पृ. ११६ पर हमने जिन चार विकल्पों का निर्देश किया है उन सभी विकल्पों को समीक्षक ने स्वीकार करके भी उन चारों पर अलग-अलग अभिमत व्यक्त
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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