________________
१८४
बातों का समाधान यह है कि जीवदया को व्यवहारधर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है और स्वरूप में स्वदयारूप जीवदया को धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है और न ही जीवदयारूप व्यवहारवर्म को उपचार से निश्चयधर्म की उत्पत्ति में निमित्त मानना भी मिथ्यात्व है।
यहाँ जो समीक्षक ने हमारे प्रथम दौर के समाधान को विसंगत और अनुचित आदि लिखा है, सो ऐसी बात द्वितीय दौर में शंका को उपस्थित करते हुए लिखी जानी थी; किन्तु वहां तो ठीक मानता गया। उसे शंका तो मात्र जीवदया के संवर और निर्जरा का कारण न मानने में रही, जिसका समाधान उत्तरपक्ष पहले कर ही पाया है । अव जो वह उसका अर्थ (स. पृ. २५०) फलित कर रहा है? वही उसकी विसंगति है। अधिक क्या लिखें। अव लिपापोती करने से कोई लाभ नहीं। यह तो एक प्रकार का सम्यक उत्तर का अपलाप करना है। हमने अपने विषय के समर्थन में परमात्म प्रकाश गा. २७१ और समयसार गा २६९ के जो दो प्रमाण उपस्थित किये थे, वे अर्थपूर्ण या सार्थक थे, उनसे उस द्वारा उपस्थित की गई शंका के ऊपर किये गये समाधान के रूप में जो विपद् प्रकाश पड़ता है, वही मूल शंका का प्रागमानुसार समाधान है।
शंका ३ के दूसरे दौर की समीक्षा का समाधान द्वितीय दौर में शंकाकार ने जितने भी प्रमाण दिये हैं, वे सब पर्यायान्तर से जीवदया को धर्म मानने के समर्थन में ही दिये हैं। ऐसा एक जगह भी पूर्वपक्ष ने नहीं लिखा कि यहां पर हम जीवदया पद से स्वदया को भी ग्रहण कर रहे हैं और वह स्वदया निश्चयधर्म रूप है ।
(१) प्रागे समीक्षक ने जो यह लिखा है ( स. पृ. २५१ ) कि "वह भी इस बात को स्वीकार करता है कि भागम में पुण्यभावरूप जिनविवदर्शन, जिनपूजा और जीवदया आदि को कर्मक्षय या मोक्ष का कारण प्रतिपादित किया गया है ।" सो आगम में जो इसका प्रतिपादन है, वह निमित्त के रूप में ही है । इनका साक्षात् मोक्ष के कारण के रूप में नहीं। आगे उसने आगम में इनके प्रतिपादित करने के जिन कारणों का निर्देश किया है, वह उसके मन की कल्पना मात्र है। अरे ! जिसके संकल्पी हिंसा का त्याग होता है, उसी के जीवदया होती है । व्यवहार से दोनों एक है । थोड़ा बहुत जो भेद है वह प्रवृत्तिमूलक है, अभिप्राय मूलक नहीं । अशुभ प्रवृत्तियों के प्रति घृणा करने से कहीं शुभ प्रवृत्ति नहीं हुआ करती । अशुभरूप प्रवृत्ति न होने का नाम ही शुभ प्रवृत्ति है । और शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की प्रवृत्ति न होने का नाम ही शुद्ध परिणति है, जो स्वभावरूप उपयोग के होने पर ही होती है ।
(२) जयधवल के शुद्धभाव के साथ शुभभाव को जो कर्मक्षय का कारण कहा है, वह इस अर्थ में ही कहा है कि जिस आत्मा में शुद्ध परिणति का सद्भाव पाया जाता है, उसी आत्मा में व्यवहारधर्म रूप शुभ परिणति का सद्भाव होता है, अन्य के नहीं। और यह व्यवस्था चौथे गुणस्थान से लेकर १० वें गुणस्थान तक नियम से पायी जाती है । इतनी व्यवस्था है कि चौधे से लेकर छठवें गुणस्थान तक शुभ परिणति की बहुलता रहती है, अर्थात अधिक काल तक बनी रहती है और