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· समीक्षक जितेंना कुछ लिख रहा है वह विकल्प की विवक्षा में लिख रहा है, इसी में वह अपनी इतिश्री मान रहा है । यहीं कारण है कि वह पक्षं समयसारं गाथा ११६ श्रादि में प्राये हुएं "सर्य" पद का "अपने आप" अर्थ करने में हिचकिचा रहा है और सर्वत्र निमित्त की सहायता कां विकल्प उसे सभी कार्यों को परतन्त्र बनाने के लिए प्रेरित करता रहता है । और मंजे की बात यह है कि ऐसा होने पर भी षड्गुण- हानि-वृद्धि रूप कार्यों को वाह्यं निमित्त के विना भी मानने मैं वह हिचकिचाहट का अनुभव नहीं करता । जबकि स्वामी समन्तभद्र स्वयंभूस्तोत्र कारिका ६० में लिखते हैं कि " सभी कार्यों में बाह्य और आभ्यंतर उपाधि को समग्रता रहती है । यदि ऐसा न माना जाय तो पुरुष की मोक्ष विधि नहीं बनती। देखो आचार्य महाराज ने कितनी बड़ी वात लिख दी कि आत्मा का मोक्षकार्य आत्माश्रित होने पर भी उसमें बाह्य और श्राभ्यंतर उपाधि की समग्रता नियम से रहती है ।" यह है जिनाग़म । पूर्वपक्ष से हमारा निवेदन है कि वह इसे समझे और अपने विचारों में सुधार करे । इसी में जिनागम की सुरक्षा है, अन्यथा नहीं ।
हमने त. च. पृ. ६०-६१ पर जो अध्यापक अध्यापन सीखने के लिए इत्यादि लिखा है सो हमारे इस कथन का समीक्षक ने निराकरण न करके मेरी समझ से समर्थन ही किया है, अन्यथा वह यह नहीं लिखता कि "परन्तु एकान्त में की गई वह क्रिया अध्यापन सीखने की दृष्टि से कार्यकारी ही है, निरर्थक नहीं ।" सो इसका हमने कहां निषेध किया है, क्योंकि उसका एकान्त में सीखना तो उपादानं द्रव्य की कार्यरूप परिणति ही है । उसका भला कौन निषेध करेगा । हमारा तो यह कहना है कि प्रत्येक कार्य में जो निमित्त होता है वह उपादान द्रव्य का कुछ भी कार्य नहीं करता, इसलिए इस अपेक्षा से वह अकिंचित्कर ही है । हमारे इस कथन में क्या आपत्ति है इसे वह इतना संव लिखने के बाद भी सिद्ध नहीं कर पाया है, फिर भी उसका समर्थन किये जा रहा है। उससे "यह उपचरित कथन है" ऐसा कहा जाय तो वह उपचार के अर्थ को काल्पनिक विकल्पभिन्नं मानने के लिए भी तैयार नहीं दिखाई देता । जबकि प्राचार्यों ने उपचार को काल्पनिक विकल्पभिन्न स्वीकार करके प्रयोजन के अनुसार उसका कथन किया है । देखो - संमयसार गाथा ४७, १०६, १०८ आदि ।
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नहीं,
हम कार्य कारणभाव की व्यवस्था का जैसा प्रतिपादन कर रहे हैं वह श्राश्चर्य की बात . क्योंकि हम जानते हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनरूप स्वभाव के कारण स्ययं ( अपने आप ) परिणमती है, यह परमार्थ कथन है । परसापेक्ष परिणमती है, यह उपचार कथन है । ग्राश्चर्य तो हमें इस बात का है कि वह (प्रेरक निमित्तों को ) यथार्थ स्वीकार करके द्रव्यथिकनय से उपादान स्वीकार कर लेता है और उदासीन निमित्तों को यथार्थ मानकर वह प्रमाण दृष्टि से श्रव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य को उपादान स्वीकार कर लेता हैं । और पड्गुण हानि-वृद्धिरूप कार्यों को श्रनिमित्तक स्वीकार करके वह उपादान को पर्यायार्थिकनय से अपने लिखान से सन्तुष्ट हैं । इसलिए आश्चर्यं तो उसे अपने लिखान का होना चाहियें, हमारे 'लिखान का नहीं, क्योंकि हमने प्रमारण से माने गये उपादान को स्वीकार करके ही पूरी प्ररूपणा निवद्ध की है । केवल समीक्षक ही निश्चयनय के वक्तव्य को पर निरपेक्ष स्वीकार नहीं करना
स्वीकार कर लेता है। फिर भी वह