________________
[ ११
होता है । एक तो वे नित्यपने की अपेक्षा मात्र द्रव्य को उपादान मानते हैं । (देखों उद्धरण नं. 14 ) दूसरे वे पर्याययुक्त द्रव्य को उपादान मानते हैं । ( देखो उद्धरण 14 ) साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि उपादान अनेक योग्यतावाला होता है, इसलिये जब जैसे निमित्त मिलते हैं, उपादान से वह कार्य होता है, अतएव कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है । उनके लिखान में हमें ये तीन मत दिखाई देते हैं ।
·
यहां उनके प्रथम मत के विषय में विचार करने पर प्रतीत होता है कि नित्यपने की दृष्टि से, द्रव्य अन्य तीनों कालों में एकरूप ही रहता है उसको उपादान स्वीकार करने पर वह कार्यरूप परिरगत कैसे हो जाता है ? इसका इन्हें ही विचार करना चाहिए, क्योंकि वे साथ ही यह भी लिखते जाते हैं कि उपदान ही उपादेयरूप होता जाता है ।
...
' द्रव्य का लक्षण है - उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत् सद्द्द्रव्यलक्षणम् । (त. सू. प्र. 5 )
सत् का अर्थ है जिसमें उत्पादव्यय और ध्रौव्य ये तीनों पाये जायें और उसी को द्रव्य कहते हैं, इसका अर्थ है. कि उत्पाद भी सत् है, व्यय भी सत् है और धौव्य भी सत् है । ये तीनों “सत्” पने से अभिन्न हैं । उनमें विवक्षा भेद में प्रद घोव्य अन्वययरूप है, इसलिये तीनों कालों में वह एकरूप रहता है, इस दृष्टि से वह नित्य है । उत्पाद और व्यय में पर्याय हैं । ये दोनों बदलते रहते हैं, अतएव अनित्य हैं । पर्याय को व्यतिरेकरूप इन्हीं की दृष्टि से स्वीकार किया गया है । निष्कर्ष यह है कि सत् तीनों रूप हैं । अन्वय और व्यतिरेक रूप उन्हें ही द्रव्य कहा जाता है ।
-
इस प्रकार यदि सत् की दृष्टि से विचार किया जाता है तो वह अन्वय और व्यतिरेकरूप होने से सत् अर्थात् पर्याययुक्त द्रव्य उपादान होता है । उपादान न केवल अन्वय ( द्रव्यरूप ) होता है और न केवल व्यतिरेक (पर्यायरूप) होता है । उपादान से अनन्तर समय में जो उपादेय होता है वह .भी न केवल अन्वयरूप होता है और न केवल व्यतिरेकुरूप ही । अर्थात् जो उपादान होता है वह भी द्रव्य-पर्यायरूप होता है और जो अगले समय में उपादेय होता है वह भी द्रव्य - पर्यायरूप होता है । इसका विचार प्रष्टसहस्री में 10वीं कारिका की व्याख्या करते हुए विशेष रूप से किया गया है । वह कारिका इस प्रकार है
कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निन्हवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥
प्रागभाव का अपलाप करने पर कार्यद्रव्य अनादि हो जाता है और प्रध्वंसाभाव धर्म के प्रच्यव होने पर कार्यद्रव्य अनन्तता को प्राप्त हो जाता है ।
कार्य का आत्मलाभ के पहले नहीं होना प्रागभाव है। जो जैन कार्य से अव्यवहितपूर्व परिशाम को ही प्रागभाव मानते हैं उनके मन में उस अव्यवहित पूर्व परिणाम के पहले अनादि पूर्व - सन्तति में कार्यद्रव्य का प्रसग प्राप्त होता है । वहीं इतरेतर प्रभाव को स्वीकार करने पर यह कोई दोष नहीं आता । सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसके अनन्तर परिणाम में भी उसी से कार्य के प्रभाव की सिद्धि हो जाने से प्रागभाव की कल्पना किसलिये की जाती है । कार्य प्रागभाव