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कथन नं० ६ (स० पृ० २२१) का समाधान :
स्वयंभू स्तोत्र कारिका ५६ के मेरे किये गये अर्थ को समीक्षक स्वीकार करके भी उसने अपने द्वारा किये गये गलत अर्थ की पुष्टि करने का उपक्रम चालू रखा; यह योग्य नहीं है, क्योंकि उक्त कारिका में आये हुए अंगभूत पद का अर्थ गौण होता है और गौणमुख्यपना दृष्टि में हुआ करता है, वस्तु में नहीं। बाह्य कारणता भी वर्तमान में क्या कार्य हुअा इसके समझने के लिये विवक्षित हुमा करती है, वस्तु में वाह्य कारणता यथार्थ नहीं हुआ करती। वस्तु में तो एक के बाद दूसरी पर्याय होती रहती है, क्योंकि परिणमन करना वस्तु का उसी तरह स्वभाव है, जिस प्रकार उनका परिणमन करते हुए नित्य बने रहना स्वभाव है। और इसीलिये वस्तु में कारणता का सद्भाव नयदृष्टि से ही स्वीकार किया जाता है । पहली पर्याय के बाद उस समय होने वाली दूसरी पर्याय होने का नियम है, इसीलिये भेदविवक्षा. में हम विवक्षित पर्याययुक्त द्रव्य को उत्तरपर्याय युक्त द्रव्य का उपादान कारण कहते हैं । साथ ही प्रत्येक द्रव्य तीनों कालों में होने वाली पर्यायों का द्रव्यदृष्टि से तादात्म्य समुच्य होने से वे पर्यायें प्रत्येक द्रव्य में उसी क्रम से होती हैं, जिस रूप से वे योग्यता के रूप में क्रमपने से अवस्थित हैं। यही वात ज्ञान में आती है, इसलिये अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य उपादान रूप से स्वीकार किया गया है। और त्रैकालिक इस व्यवस्था के आधार पर अन्य जिस द्रव्य की पर्याय की इसके साथ वाह्य व्याप्ति वनती रहती है, उसमें प्रयोजन के अनुसार निमित्त व्यवहार कर लिया जाता है, यह वस्तुस्थिति है । इसे पूर्वपक्ष एकवार बुद्धि में स्वीकार करले तो सब विवाद समाप्त हो जाय । और हमने जो उक्त कारिका का अर्थ किया है उसे भी वह निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लेगा।
उक्त कारिका में जो अपि पद पाया है, उसका प्रकृत में क्यों एव. अर्थ करना प्रयोजनीय किया है, उसे भी समीक्षक को समझ में आ जायगा। विशेप क्या स्पष्ट करें। कथन नं० १० (स० पृ० २२३) का समाधान :
हमने "यद्वाह्ययवस्तु" इत्यादि कारिका को ध्यान में रखकर जो अर्थ त. च. पृ. ८६ में किया है उसे समाधान के रूप में पूर्वपक्ष ने स्वीकार करके उससे फलित होने वाले तात्पर्य को स्वीकार करने का जो साहस दिखलाया है, उसकी हम भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं; किन्तु इसके बाद पूर्वपक्ष ने समयसार गाथा में कहे गये अर्थ की जो दृष्टि की अपेक्षा व्याख्या की है, उसे देखने पर वह ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि स्वसमय अर्थात् जो ज्ञानी होता है, वह स्वयं के जीवन में नियम से अध्यात्मवृत्त होता है, अज्ञानी नहीं, यह उक्त गाथा में कहा गया है। अर्थात् अज्ञानी भी स्वरूप से ज्ञानस्वरूप होकर भी मान्यता में अवश्य ही स्वयं को बद्ध-स्पष्ट। अन्य-अन्य, अनियत, विशेप रूप और राग-द्वेषरूप अनुभवता है, इसलिए अज्ञानी है। पर को और आत्मा को एक मानना अज्ञानी का लक्षण है और पर से भिन्न स्वयं को ज्ञानस्वरूप अनुभवना ज्ञानी का लक्षण है। यह तथ्य समयसार गाथा में आचार्य देव ने स्पष्ट किया है।
प्रत्येक द्रव्य की एक पर्याय के बाद दूसरी पर्याय होने का नाम ही कार्योत्पत्ति है। वह किसी से नहीं होती, स्वयं होती है फिर भी उपादान और निमित्त के योग से यह हुई, यह व्यवहार