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आत्मा का ही कार्य होने से निश्चयस्वरूप है । कोई निश्चय मिथ्याज्ञान हो और कोई व्यवहार मिथ्याज्ञान हो - ऐसा नहीं है । इतना अवश्य है जब कुदेवादि के ज्ञान को सुदेवादि का ज्ञान कहा जाता है या मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्याज्ञान होता है, ऐसा कहा जाता है तब वह पर सापेक्ष कंथन होने से व्यवहार मिथ्याज्ञान कहा जाता है अथवा वह स्वभावभूत आत्मा के श्रालम्वन से नहीं उत्पन्न हुआ है, पर के आलम्बन से उत्पन्न हुआ है फिर भी उसे आत्मा का कहना यह लोक व्यवहार है । किन्तु यहां सव विषय प्रयोजनीय नहीं है । यहां तो मात्र परमार्थ से शरीर "जीवित" होता है या नहीं और उसे जीवित मानकर उससे धर्म अधर्म होता है या नहीं, इतना मुख्यरूप से विचारणीय विषय है । उस पक्ष की और से इसी भाव को लेकर शंका उपस्थित की भी गई जिसका कि हमने तीनों दौरों में समाधान किया है । प्रकृत से दुनियाँ भर के असंगत विषय लिखकर मालूम पड़ता है कि वह पक्ष
घी तौर से अपने प्रमाद को नहीं स्वीकार करना चाहता । स० पृ० २०९ में (क) के अन्तर्गत जोउस पक्ष ने मिथ्याज्ञान के परिणमन को मतिष्क के सहारे पर लिखा है, वह उसकी भूल हैं, क्योंकि मिथ्या ज्ञान का परिणमन जीव में एक तो अपने अज्ञान के कारण होता है और दूसरे वह मिथ्यात्व कर्म के उदय को निमित्त कर होता है । जैन आगम में पांच इन्द्रियां और छठा मन माने गये हैं । इनके सिवाय " मस्तिष्क " नाम की कोई स्वतन्त्र इन्द्रिय नहीं है जिसके सहारे से मिथ्या ज्ञान : का परिणमन माना जाय ।
(ख) और (ग) मिथ्या दर्शन भी जीव का परिणमन विशेष है । उसके अस्तित्व में जीव के मन के निमित्त से अन्यथा श्रद्धा अवश्य होती है । स्वरूप से व्यहार मिथ्या ज्ञान न तो व्यवहार मिथ्या दर्शन ही है और न ही व्यवहार मिथ्या चारित्र ही है । इन तीनों को जब पर सापेक्षपने से मानते हैं तब वे अवश्य ही व्यवहार मिथ्या दर्शन, व्यवहार मिथ्या ज्ञान और व्यवहार मिथ्या चारित्र कहलाते हैं ।
(घ) व्यवहार अरुचि क्यों कहलाती है, इस विषय में भी पूर्वोक्त विधि से जान लेना चाहिये । (च) और (छ) का भी यही उत्तर है ।
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आगे स.. पृ. २१० में उसने जो कुछ लिखा है, वह उसके मन से होने वाले विकल्पों की ही उपज है, इसीलिये मूल शंका से इन सब विचारों का सम्बन्ध न होने से हम उनके संबन्ध में कुछ नहीं लिख रहें हैं ।
कथन नं० २ (स० पृ० २११) का खुलासा :
इस कथन में समीक्षक ने स. पू. ८६ के हमारे वचन को उद्धृत कर जो कुछ शंका उपस्थित की है, उसमें व " जिवित शरीर की क्रिया से" जिसे उसने शरीर के सहयोग से होनेवाली जीव की क्रियारूप, स्वीकार किया है, उसका यह कथन मूल शंका से बहिभूर्त है, क्योंकि जीव की क्रिया को जीवित शरीर की क्रिया कहना मात्र भ्रामक शब्दों का जाल ही है । यदि उसे जीनित शरीर की क्रिया से यही अर्थ ग्राहृय था तो शंका । में ही इसे स्पष्ट कर दिया गया होता । किन्तु इस खुलासे