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और धर्म होता है, उस पक्ष का यह कहना मिथ्या ही है । इस शंका का हम हमारे प्रथम, द्वितीय और तृतीय दौर में विविध प्रमाण देकर गहराई से विचार कर आये हैं । इसलिए इस विषय पर पुनः पुनः लिखना पिष्टपेपण मात्र है। जिज्ञासुओं को इस समाधान के साथ उन दौरों को विशेष रूप से पढ़ना चाहिये।
प्रेरक नाम का कोई निमित्त है ही नहीं। प्रेरक निमित्त कहना मात्र असद्भूत व्यवहार ही है । इसी अपेक्षा से आगम में कहीं-कहीं इसका कथन दृष्टिगोचर होता है। विचार करके देखा जाय तो किसी प्रकार का भी निमित्त क्यों न हो, अन्य द्रव्य के कार्य के प्रति वह उदासीन ही होता है, क्योंकि जिस समय कोई भी द्रव्य अपने उत्पाद-व्ययरूप स्वभाव के अनुसार कार्यरूप परिणमता है उसी समय जिसे इस कार्य का निमित्त कहा जाता है वह भी अपने उत्पाद-व्ययरूप द्रव्य स्वभाव के अनुसार अपने कार्यरूप परिणमता है, किसी को परमार्थ से सहायता करने का अवसर ही नहीं मिलता है । मात्र इन दोनों में कालप्रत्यासत्ति होने से एक को अपने कार्यरूप परिणमन को गौरणकर दूसरे के कार्य का निमित्त कहा जाता है । उपचारनय से यह अनादि कालीन व्यवस्था है जो अकाट्य है, और वह कालप्रत्यासत्ति या वाह्य व्यक्ति के आधार पर पागम में स्वीकार की गई है।
मूल शंका २ के तीसरे दौर की समीक्षा का समाधान इस दौर में जीवित शरीर पद को स्वीकार कर उसी आधार पर धर्म अधर्म होना लिखा है । तदनुसार आंगे इसी बात को ध्यान में रखकर समीक्षा का समाधान किया जाता है।
ससीक्षक ने १, २, ३ क्रमांक के अन्तर्गत हमारे वक्तव्य को उद्धृत कर अन्त में स. पृ. २०५ में जो यह लिखा है कि "उत्तरपक्ष प्रकृत प्रश्नोत्तर की सामान्य समीक्षा के प्रथम और द्वितीय दोनों दौरों की समीक्षा के कथनों पर ध्यान देता तो उसे अपनी प्रकृत विषय सम्बन्धी मूल का पता हो जाता।
सो इसका समाधान यह है कि चाहे जीते हुए जीव का शरीर हो और चाहे जीव के निकलने के बाद का शरीर हो- दोनों ही शरीर हैं और दोनों ही जड़ हैं। निमित्तपने की दृष्टि से पर के कार्य में दोनों ही वाह्य निमित्त होते हैं, अत: यह आपत्ति योग्य नहीं है । परमार्थ से आपत्तियोग्य तो शरीर को जीवित विशेषण लगाना है। वह यह प्रमाद स्वीकार करले, और उसके बाद असद्भूत व्यवहारंनय से शरीर को धर्म अधर्म में निमित्त कहे तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। कथन १ के सम्बन्ध में खुलासा :
(क) जीवित विशेषण शरीर के स्वरूप का ख्यापन नहीं करता, अपने भावप्राणों से जीवित तो जीव ही होता है। "जीव के महयोग से" का अर्थ ही असद्भूत व्यवहारनय से जीव के निमित्त से होता है। इसलिये , जीव के निमित्त से जब समीक्षक शरीर को ही स्वरूप से जीवित मान सकता है तो उसे सीधे शरीर की क्रिया को ही स्वरूप से धर्म अधर्म मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये; अर्थात् कुछ भी आपत्ति नहीं होनी चाहिये ।