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भाववती शक्ति और क्रियावती शक्ति का परिणमनं यथासंभव धर्म और अधर्म होने में अन्तरण और वहिरंग निमित्त हैं । इसलिये उनके आधार से हमने प्रकृत में उहापोह करना प्रयोजनीय नहीं समझा। यहां तो यह देखना है कि धर्म क्या है और अर्घम क्या है ?
___ आगे समीक्षक ने पृ. १९२ में "यहां पर यह ज्ञातव्य" के अन्तर्गत जो कुछ लिखा है वह उसकी मान्यता है, वह आगम नहीं। तथा प्रकृत में प्रयोजनीय नहीं होने से यहां हम उस विषय में नहीं लिख रहे हैं । समीक्षक मूल शंका को ध्यान में रखकर लिखता नो प्रकृत में उपयोगी होता।
मूल शंका २ के पहले दौर की समीक्षा का समाधान - सीधा प्रश्न यह है कि "जीवित शरीर के क्रिया से धर्म, अधर्म होता है या नहीं ? इसमें "जीवित" शब्द शरीर का विशेषण है । जव कोई प्राणी मरण के सम्मुख होता है तो देखने वाले पूछते है कि यह प्राणी जीवित है कि मर गया ? इससे हम जानते हैं कि "जीवित" यह विशेपण जीते हुए प्राणी के लिए लगाया जाता है, न कि शरीर के लिये । किन्तु समीक्षक इस विशेषण को शरीर के साथ लगाकर उससे धर्म या अधर्म होता है या नहीं - यह पूछता है। इसलिये यदि हमने उसकी शंका के अनुसार उत्तर दिया तो फिर आश्चर्य है कि वह यह लिखने का साहस कसे कर रहा है कि "उत्तर प्रश्न के प्राशय के प्रतिकूल और निरर्थक है।" यह तो उसे शंका उपस्थित करते हुए सोचना चाहिये था कि हम उत्तर पक्ष के सामने इस भाषा में शंका उपस्थित करें जिससे उत्तर पक्ष द्वारा हमारे आशय के अनुरूप हमें समाधान मिल जाय । समीक्षक ने जिस भाषा में शंका की थी, समाधान भी उसी को ध्यान में रखकर किया गया था। अव व्यर्थ के विकल्प से कोई लाभ नहीं। समाधान आगम सम्मत है -
शंकाकार शरीर की क्रिया को जीव की क्रिया मान लेना चाहता है सो इस संबंध में हमने जो नाटक समयसार पद्य १२१-१२३ समयसार कलश २४२ और परमात्मप्रकाश पद्य २-१६३, प्रमाण उपस्थित किये हैं उनसे तो अज्ञानी के उसी विकल्प का सूचन होता है जिसे शंकाकार पक्ष जीवित शरीर की क्रिया कहता है । इसलिये हमने अपने समाधान में जिन प्रमारणों को उपस्थित किया है, समाधान के अनुरूप है। किन्तु शंकाकार पक्ष हमारे सप्रमाण समाधानों पर से जो आशय फलित करता है, वह फलित नहीं होता। और न हमारा समाधान आगम से विपरीत ही है। शंकाकारपक्ष की ही उक्त शंका आगम के विपरीत अवश्य ही है । इतने बड़े विद्वानों के द्वारा उपस्थित की गई ऐसी शंका अवश्य ही हंसी और मनोरंजन का साधन बनी हुई है।
__ शंकाकारपक्ष जिसे जीवित शरीर की क्रिया कहता है वह अजीव तत्व में अन्तर्भूत होती है, क्योंकि शरीर जीवित नहीं होता, जीवित तो जीव होता है । इसलिये न तो वह परमार्थ से धर्म अधर्म का हेतु ही है और न स्वयं धर्म अधर्म ही है। फिर भी जैसे वह पक्ष यह कहने में नहीं हिचकिचाता कि संसारी आत्मा परमार्थ से भोजन नहीं करता तो कौन करता है ? वैसे ही वह पक्ष "जीवित शरीर" कहकर उससे परमार्थ से धर्म और अधर्म मानता हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि वह पक्ष जव जीव को जीवित कहने की अपेक्षा शरीर को ही जीवित कहता है, ऐसी अवस्था में