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________________ १४७ (8) शंका :- इतना स्पष्ट है कि दोनों ही पक्ष उपादान की कार्यरूप परिणति के अवसर पर दोनों निमित्तों की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं। इतनी समानता पायी जाने पर भी दोनों पक्ष के मध्य जो मतभेद है वह यह कि उत्तरपक्ष उन्हें वहां सर्वथा अकिंचित्कर मानता है जब कि पूर्वपक्ष उन्हें वहां कार्योपत्ति में उपादान के सहायक होने रूप से कार्यकारी मानता है । स. पृ. १४ । • समाधान :- इस वक्तव्य में मुख्यतया "सर्वथा" पद ही विवाद का विपय है। इसे समीक्षक का हमारे ऊपर पारोप कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि उत्तरपक्ष कार्य के प्रति निमित्तमात्र को असद्भूत व्यवहारनय से स्वीकार करता है । इसलिए उसका (उत्तरपक्ष को) कहना है कि जब वह कार्य के प्रति असद्भूत व्यवहारनय से निमित्त माना गया है तो उसे निमित्त को कार्य के प्रति असद्भूत व्यवहारनय से ही सहायक मानना चाहिये। किन्तु समीक्षक इसे मानने के लिए तैयार नहीं है। वह कार्य के प्रति निमित्त को व्यवहारनय से कारण मानकर भी भूतार्थ रूप से उसको सहायक मानता है। हमने कार्य-कारण भाव में निमित्त को लक्ष्य कर उसे सर्वथा अकिंचित्कर कहीं भी नहीं लिखा। अपनी गलत मान्यता को छिपाने के लिये समीक्षक का हमारे ऊपर यह मात्र मिय्या आरोप है । उसके कथन में एक भूल तो यह है कि वह असद्भूत व्यवहारनय के स्थान में मात्र व्यवहारनय का प्रयोग करता है और इस प्रकार वह पाठकों को भ्रम में डाले रखना चाहता है । दूसरी भूल यह है कि जवकि आगम में निमित्त को असद्भूत व्यवहारनय से अर्थात् उपचार से सहायक माना गया है, ऐसी अवस्था में वह उसे भूतार्थरूप से सहायक मानता है। इसे मागम का अपलाप न कहा जाय तो और क्या कहा जाय ? (१०) शंका :-कथन ३० में समीक्षक का कहना है कि कुम्भकार घटोत्पत्ति में स्वरूप से कारण या कर्ता नहीं है व घट स्वरूप से कुम्भकार का कार्य नहीं है । यह अवश्य है कि कुम्भकार में घटोत्पत्ति के प्रति सहायक होने रूप से योग्यता का सद्भाव है और घट में कुम्भकार की सहायकता में उत्पन्न होने की योग्यता का सद्भाव है ? समाधान :- यहां सवाल यह है कि कुम्भकार में घट की उत्पत्ति में सहायक होने की योग्यता और घट में कुम्भकार की सहायता में उत्पन्न होने की योग्यता स्वरूप से है या इन दोनों में दोनों योग्यताये असद्भूत व्यवहारनय से कल्पित की गई हैं या कही गई हैं। स्वरूप से हैं यह तो समीक्षक को स्वयं स्वीकार नहीं है। यदि कल्पित की जानी है या कही जाती है तो यहां समीक्षक को यह स्पष्ट कर देना आवश्यक था कि इसप्रकार की ये दोनों में दोनों प्रकार की योग्यतायें असद्भुत व्यवहारनय से कल्पित करली जाती हैं या कही जाती हैं। यह एक उदाहरण है, निमित्त कथन की दृष्टि से सर्वत्र ही इसी प्रकार समझ लेना चाहिये। (११) शंका:- कार्य की निष्पत्ति उपादान में ही हुया करती है ? समाधान :- कार्य की निष्पत्ति उपादान में ही होती है यह कहना अधिकरण कारकपने की अपेक्षा यथार्थ है, किन्तु कर्ता कारक की दृष्टि से उपादान ही कार्य को उत्पन्न करता है ऐसा
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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