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________________ उपसंहार पूर्व पक्ष ने (समीक्षक ने इस समीक्षा लिखने में जो भूलें की हैं, उनमें से कुछ भूलों का संक्षेप में स्पष्टीकरण : (१) मूल शंका : द्रव्य कर्म के उदय से संसारी श्रात्मा का विकार भाव और चतुर्गति भ्रमरण होता है या नहीं ? समाधान :- " संसारी श्रात्मा के विकार भाव और चतुर्गति भ्रमण में द्रव्य कर्म का उदय निमित्त मात्र है विकारभाव और चतुर्गति भ्रमरण का मुख्य कर्त्ता स्वयं श्रात्मा ही है ।" यह उत्तर हमने इसलिये दिया था कि प्रत्येक कार्य में एक ही कारण नहीं होता, इसलिये समीक्षक द्वारा केवल उपचारनय से ( श्रसद्भूत व्यवहारनय से ) पूछी गई शंका का पूरा समाधान हो जाना श्रावश्यक था । यह जानकर हमने उक्त उत्तर दिया था । इसके अतिरिक्त हम और क्या कर सकते थे ? (२) शंका : - समीक्षक व्यवहार के विषय को कथंचित् अभूतार्थं श्रीर कथंचित् भूतार्थ मानता है । स. पू. ४ समाधान :- यह समीक्षक का कहना है, किन्तु प्रकृत में व्यवहारनय से श्रसद्भूत व्यवहारनय का ग्रहण किया गया है । इसलिये वह भूतार्थ नहीं होता, क्योंकि वह उपचरित ( कल्पनारोपित) धर्म का कथन करता है जिसका कि कार्य-वस्तु में सर्वथा प्रभाव है । जिस कार्य का निमित्त कहा गया है उसमें भी अन्य द्रव्य के कार्य का कारण धर्म वास्तविक नहीं होता । बाह्य वस्तु में कालप्रत्यासत्ति वश कारणता का आरोप करके उसे कार्य का निमित्त कहा जाता है "और निमित्तकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म में स्वीकृत निमित्त कारणता, श्रयथार्थ कारणता श्रीर उपचरित कर्तृत्व व्यवहार के विषय हैं" यह लिखकर हमारे कथन को स्वीकार कर लेत है । । स्वय समीक्षक इसी पृष्ठ में (३) शंका :- " वहां पूर्व पक्ष उसे अभूतार्थ और संसारी आत्मा की उस कार्यरूप मानता है । स पृ. ५। उस कार्यरूप परिणित न होने के भावर पर परिणिति में सहायक होने के अाधार पर भूतार्थ समाधान :- निमित्त श्रौर सहायक का एक ही अर्थ है । और निमित्त प्रयथार्थ कारण है । इस प्रकार जबकि उसमें कारणता श्रयथार्थ है तो उसकी सहायता से कार्य हुआ, परमार्थ से यह कहना कैसे संगत हो सकेगा ; अर्थात् नहीं हो सकेगा । और फिर कार्य द्रव्य अत्यन्त भिन्न है, उसमें उपचरित कारण- द्रव्य का अत्यन्ताभाव है । इसलिये उसकी सहायता से कार्य हुआ ऐसा कहना श्रसद्भुत व्यवहार से ही बनता है, परमार्थ से नहीं । श्रतः जैसे निमित्त को कारण कहना श्रभूतार्थ है वैसे ही उसकी सहायता से कार्य हुआ - यह कहना भी प्रभूतार्थ है, भूतार्थं नहीं है, क्योंकि निमित्त की सहायता से कार्य हुआ- यह कहना भी उपचरित अर्थं को ही सूचित करता है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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