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कार्योत्पत्ति की स्वाभाविक योग्यता का सद्भाव व उक्त अवसर पर अनुकूल प्रेरक और उदासीन निमित्तों का सद्भाव तथा वाधक निमित्तों का अभाव ये सभी वस्तु में कार्योत्पत्ति में साधक होते हैं। यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड के पूर्वोक्त कथन के अनुसार अनित्य उपादान शक्तिरूप पर्यायशक्ति विशिष्ट नित्य उपादान शक्तिरूप द्रव्यशक्ति कार्योत्पत्ति में साधक होने से अनित्य उपादान शक्तिरूप पर्यायशक्ति को भी कार्यकाल की योग्यता के रूप में कार्योत्पत्ति की साधक माननी चाहिये ।" (स. पृ. 28)
(16) यद्यपि इस विषय में दोनों पक्षों के मध्य यह विवाद है कि जहां उत्तरापक्ष व्यवहारनय के विषय को सर्वथा अभूतार्थ मानता है, वहां पूर्वपक्ष उसे कथचित अभूतार्थ और कथंचित भूतार्थ मानता है, परन्तु यह प्रकृत प्रश्न के विषय से भिन्न होने के कारण उस पर स्वतन्त्र रूप से हो विचार करना संगत होगा । (स. पृ 4)
(17) "जहाँ उत्तरपक्ष उस उपचार को सर्वथा अभूनाथं मानता है, वहां पूर्वपक्ष उसे कथंचित भूतार्थ और कथंचित अभूतार्थ मानता है । इस पर भी यथावसर आगे विचार किया जायेगा।"
(स. पृ. 4) (18) "दोनों पक्षों का कहना है कि उक्त कार्य के प्रति उपादान कारणभूत संसारी प्रात्मा में स्वीकृत उपादान कारणता, यथार्थ कारणता और मुख्य कर्तृत्व निश्चयनय के विषय हैं और निमित्त कारणभूत उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म में स्वीकृत निमित्त कारणता, अयथार्थ कारणता और उपचरित कर्तृत्व व्यवहारनय के विषय हैं।" (स. पृ. 4)
(19) "परन्तु नहीं उत्तरपक्ष उसी कार्य के प्रति निमित्तकारण रूप से स्वीकृत उदयपयोय विशिष्ट द्रव्यकर्म को उस कार्य रूप परिणत होने और उपादान कारणभूत संसारी आत्मा की उस कार्यरूप परिणति में सहायक भी न होने के आधार पर सर्वथा अकिंचित्कर मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अकिचित्कर और उपादानकारणभूत संसारी आत्मा की उस कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधार पर कार्यकारी मानता है।"
(स. पृ. 4-5) (20) "पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्यरूप परिणत न होने के साथ उपादान कारणभूत संसारी आत्मा की उस कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधार पर अयथार्थ कारण उपचरितकर्ता मानता है ।" (स. पृ. 5)
(21) "पूर्वपक्ष उसे वहां पर उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्मा की उस कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधार पर भूतार्थ मानता है ।"
(स. पृ. 5) (22) "दोनों पक्षों के मध्य विवाद केवल उक्त कार्य के प्रति उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म की उत्तरपक्ष को मान्य सर्वथा अकिचित्करता और सर्वथा अभूतार्थता तथा पूर्वपक्ष की मान्य कथंचित अकिंचित्करता व कथंचित् कार्यकारिता तथा कथंचित् अभूतार्थ व कथंचित् भूतार्थता के विषय में है।" (स. पृ. 5)