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प्रसंग में जो निमित्त के सहयोग की बात पुनः पुनः दुहराई जाती है उसका निरसन करते हुए उक्त टीका में आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने गाथा १२३ का जो अर्थ किया है उससे भी यही ज्ञात होता है कि इस गाथा में "स्वयं" का अर्थ "अपने प्राप" ही होता है जैसा कि उन्होंने प्रकृत टीका में यही अर्थ किया है । टीका इस प्रकार है :- .
"जीवेण सयं बद्ध" पुद्गल द्रव्यरूप कर्म अधिकरणभूत जीव में न तो स्वयं वद्ध है, क्योंकि जीव तो सदा शुद्ध है और "ण सयं परिणमदि कम्भावेण" अपने आप कर्मरूप से भी प्रांत द्रव्यकर्म की पर्यायरूप से भी नहीं परिणमता है" - तात्पर्य यह है कि समीक्षक "सयं" पद का जो अर्थ करता है, वह अर्थ न तो , मूल-गाथाओं से ही फलित होता है और न उनकी संस्कृत या हिन्दी टीकानों से ही फलित होता है । अपनी विद्वता के बल पर किसी शब्द का कुछ भी निष्कर्ष निकालने बैठना विद्वता नहीं है । इससे अधिक और क्या लिखें? .
कथन नं.८६ का समाधान:-इस कथन में भी समीक्षक ने उन्हीं वातों को दुहराया है जिनके विषय में अनेक वार विचार किया जा चुका है। किसी एक वस्तु के कार्य में अन्य वस्तु की विवक्षित पर्याय को या उस वस्तु को या उन दोनों को मिलाकर निमित्त कहना, यह जब असद्भूत व्यवहार नय का विषय है - ऐसी अवस्था में अन्य को अन्य के कार्य में परमार्थ से सहायता करने की वात करना केवल शास्त्र की उपेक्षा ही कही जायेगी। कहा भी है - "अर्थक्रियाकारित्वं हि वस्तुनी वस्तुत्वम् । द्रव्य अर्थक्रियाकारी होते हैं । जिसे हम अन्य द्रव्य के कार्य में निमित्त कहते हैं वह स्वयं प्रतिसमय अपना कार्य करने में लगा रहता है, इसलिए वह अन्य द्रव्य के कार्य में परमार्थ से सहायता करता है - ऐसा लिखना या कहना स्वमत का पोपण ही है, आगम नहीं । यदि उससे इस समय अन्य द्रव्य ने क्या कार्य किया - इस प्रकार की सूचना मिलती है तो इसे अन्य द्रव्य के कार्य में परमार्थ से सहायता करना नहीं कहा जा सकता । अतः हम तो उनसे यही निवेदन करेंगे कि वे अपने आग्रह को छोड़कर जनशासन की मर्यादा में व्यवहारनय के कथन को यथार्थ रूप से समझने में अपनी बुद्धि का उपयोग करें; वैसे समझने तो हैं । परन्तु पक्ष के व्यामोहवश तथ्य को स्वीकार नहीं करते ।
कथन न० ९० का समाधान :-इस कथन में शंकाकार पक्ष ने जो निश्चयनय और व्यवहारनय की परस्पर सापेक्षता का निर्देश किया है सो यहां पर हम सापेक्षता का आगम में क्या अर्थ लिया गया है इसे अण्टसहस्री के कथन द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं, जो दृष्टव्य है ।
अष्टसहस्री की कारिका १०८ में सापेक्ष शब्द का अर्थ करते हुए भट्टाकलंकदेव लिखते हैं
"निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः, सापेक्षत्वमुपेक्षा, अन्यथा धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् 'प्रमाणनयदुर्णयानां प्रकारान्तरायंभवाच्च प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेर्नयात्तत्प्रतिपत्तेदुर्नयादन्यनिराकृतेश्च ।"
विवक्षित धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म का निराकरण करना निरपेक्षता है तथा सापेक्षता का अर्थ उपेक्षा है, अन्यथा प्रमाण और नयों में कोई विशेषता नहीं रह जाती है, क्योंकि विवक्षित धर्म