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होकर अपने आप परिणमता है। उसमें अन्य द्रव्य निमित्त होता है यह असंभूत व्यवहार वचन है, इसीलिये निमित्त को मात्र विकल्परूप में स्वीकार किया गया है। (इसके लिये देखो - सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सूत्र २) हम समझते हैं कि इतना स्पष्ट करने मात्र से प्रकृत कथन का पूरा समाधान हो जाता है । इसमें विशेप कुछ लिखने को नहीं रहता।
कथन नं० २ का समाधान :- द्रव्य का स्वरूप उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। इस प्रसंग में समीक्षक ने टिप्पण करते हुए लिखा है कि "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप प्रत्येक सत् की उत्पत्ति को वह यथायोग्य पर की सहायता से मानता है; पर से नहीं मानता अर्थात् पर उसका कर्ता होता हैऐसा वह नहीं मानता हैं।
सो इस सम्बन्ध में हमारा इतना संकेत कर देना ही पर्याप्त है कि पर की सहायता में कार्य होता है या पर से कार्य होता है, इन दोनों का अर्थ एक ही है। देखो समयसार गाथा १०६ यथा
जोहिं कदे जुद्ध राएंण कदं ति जंपदे लोगो।
व्यवहारेण तह कदं गाणावरणादि जीवेरणं ॥ १०६ ॥ अर्थ- योद्धानों के द्वारा युद्ध किये जाने पर राजा ने युद्ध किया यह लोकव्यवहार से अर्थात उपचार से कहते हैं । उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किये - ऐसा असद्भूत व्यवहार से उपचार से कहा जाता है । इतने पर भी समीक्षक के द्वारा की गई इस समीक्षा को पढ़कर ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि इतना स्पष्ट लिखने पर भी उसने अभी तक निश्चयनय, सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय के आशय को ख्याल में नहीं लिया है और लेना भी नहीं चाहता।
कथन नं० ८३ का समाधान :- इस कथन में भी समीक्षक ने उन्हीं वातों को दुहराया है जिनका कथन नं. ८२ में स्पष्टीकरण कर आये हैं, क्योंकि निश्चयनय का वक्तव्य आत्मश्रित ही होता है, पराश्रित नहीं। प्रकृत में पराश्रितपंना असद्भूत व्यवहारनय से ही कहा जाता है । जैसा कि समयसार गाथा नं० २७२ में कहा भी है -
"आत्माश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारनयः" इसलिये निश्चयनय की अपेक्षा पर-निरपेक्षरूप से ही कथन किया जाता है। परसापेक्ष कथन करना यह प्रकृत में असद्भूत व्यवहारनय का विषय है। शेप सव कथन पुनरुक्त होने से उस पर अलग से ध्यान देना उचित प्रतीत नहीं होता।
कथन नं०८४ का समाधान :- इस कथन में अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए जो यह लिखा है कि "समयसार में जहां व्यवहारपक्ष को उपस्थित कर निश्चयपक्ष के कथन द्वारा उसका निषेध किया गया है वहां ग्रन्थकार का यही आशय है कि जो लोग व्यवहारपक्ष को निश्चयपक्ष समझकर व्यवहार विमूढ़ हो रहे हैं, उनकी यह व्यवहार विमूढ़ता समाप्त हो जाय । उसमें ग्रंन्यकार का अभिप्राय व्यवहारपक्ष को सर्वथा अंसत्य सिद्ध करने का नहीं है।" .