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________________ (5) "इस विषय में हमारा कहना यह है कि जीव की भोक्षपर्याय स्प्रत्यय पर्याय न होकर स्व परप्रत्यय पर्याय ही है । कारण कि मोक्ष का स्वरूप आगमनन्थों में द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म के क्षपण के आधार पर ही निश्चित किया जाता है ।" (समीक्षा पृ.26) "प्राचार्य समन्तभद्र ने कालनय-अकालनय तथा नियतनय-अनियतनय इन नयों की अपेक्षा कार्य की सिद्धि वतलाई है, इसलिए सभी कार्यों का सर्वथा कोई काल नियत नहीं है। आदि (स. पृ. 45.) (6) "इस तरह कार्योत्पत्ति में उपादान, प्रेरकनिमित्त और उदासीननिमित्त तीनों का अपना-अपना महत्व हैं । इनमें से उपादान का महत्व कार्यरूप परिणत होने में है, प्रेरक निमित्तों का महत्व उपादान को कार्योत्पत्ति के प्रति तैयार करने में है और उदासीन निमित्तों का महत्व कार्योत्पत्ति उद्यत उपादान को अपना सहयोग प्रदान करने में है। यह भी ध्यातव्य है कि उपादान उसे कहते हैं जिसमें कार्यरूप परिणत होने की स्वभावतः योग्यता विद्यामान हो । इसलिये ऐसा यहां समझना चाहिये कि प्रेरक निमित्त उपादान की उस योग्यता को कार्य रूप से विकसित होने के लिये प्रेरणामात्र करता है। (स. प. 14) (7) "पूर्वपक्ष के मान्य दोनों निमित्तों के लक्षण सम्यक हैं । इसका एक कारण यह है कि दोनों निमित्तों की उपादान की कार्य रूप परिणति में अपने-अपने ढंग से सहायक होनेरूप से यदि कार्यकारी मान लिया जाता है तो इससे कार्योत्पत्ति के अवसर पर उनकी निमित्तरूप से उपस्थिति युक्तियुक्त हो जाती है । (स. पृ. 15) (8) कार्यकारणभाव एक तो उपादानोपादेयरूप होता है जो उपादान कारण और उपादेय कार्य में पाया जाता है । इस उपादानोपादेयरूप कार्यकारण भाव की नियामक उपादानकारण और उपादेय कार्य में विद्यमान अन्वय व्यतिरेक व्याप्तियां होती हैं । जो इस प्रकार हैं जिस वस्तु में जिस कार्य की उपादानशक्ति (कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता) विद्यमान रहती है उस वस्तु की ही उस कार्यरूप परिणति हो सकती है और जिस वस्तु में जिस कार्य की उपादानशक्ति (कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता ) का अभाव रहता है उस वस्तु की उस कार्यरूप परिणति त्रिकाल में कभी नहीं हो सकती ।" (स. पृ. 15-16) (9) दूसरा कार्य-कारणभाव निमित्त-नैमित्तिक भावरूप होता है जो निमित्तकारण और नैमित्तिक कार्य में पाया जाता है। इस निमित्त-नैमित्तिक भाव रूप कार्य-कारणभाव की नियामक भी निमित्त और नैमित्तिक कार्य में विद्यमान अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां होती हैं ।" (स. पृ. 16) (10) “परीक्षामुख सूत्र 3-63 की प्रमेयरत्नमाला टीका का जो उद्धरण ऊपर दिया गया है उसमें जो "कुलालस्यैव कलशं प्रति" के रूप में दृष्टान्तपरक कथन है, उससे अवगत होता है कि उपादानोपादेयभावरूप कार्य-कारण भाव के समान निमित्त-नैमित्तिकभाव रूप कार्यकारणभाव भी होता है जिनकी उपयोगिता कार्योत्पत्ति में हुग्रा करती है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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