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________________ ११२ मान्यता है, क्योंकि जो अयथार्थ कारण हो, उसका सहायक हो जाए यह त्रिकाल में संभव नहीं है । विचार कर देखा जाए तो समथं उपादान के द्वारा होने वाले कार्यकाल में वाह्य व्याप्तिवश. बाह्य वस्तु को चाहे निमित्त कहो या सहायक - दोनों का अर्थ एक ही है.। इससे यह अपने आप ध्वनित हो जाता है कि बाह्य निमित्त वास्तव में निमित्त नहीं है, उपचार से निमित्त अर्थात उपचार से सहायक है। बाह्य वस्तु है तो सद, उसमें निमित्तपना या सहायकपना प्रयोजनवा आरोपित है। कथन नं. ५० का समाधान :-इस कथन में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "जव कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय निमित्त कारणभूत वाह्य सामग्री की सहायता से भी निष्पन्न होती है - ऐसा आगम है तो अपरपक्ष के उक्त कथन के पूर्वपक्ष के प्रश्न का समाधान नहीं होता- वह तदवस्थ बना रहता है ।" इसके उत्तर में हमारा यही कहना है कि समर्थ उपादान से होनेवाले कार्य के साथ वाह्य व्याप्ति नियम से होती है । उदाहरणस्वरूप कर्मोदय से होनेवाली कोई भी पर्याय उक्त बात का समर्थन करती है, क्योंकि जिस समय क्रोधादि कर्म का उदय होता है, उसी समय क्रोधादि कषाय होती है - ऐसा इन दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध है। दूसरी बात यह है कि केवल कार्याव्यवहित पूर्व पर्याय उपादान न होकर कार्याव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य- उपादान होता है । ऋजुसूत्रनय से कार्याव्यवहित केवल पूर्व पर्याय को उपादान कहना दूसरी बात है - तथा कार्याव्यवहित पूर्व पर्याय को गौण कर द्रव्य को उपादान कहना भी दूसरी बात है, परन्तु वह द्रव्य कार्य का अव्यवहित पूर्व समयवर्ती होना चाहिये । कथन नं. ५१ का समाधान :-इस कथन में समीक्षक ने जिस कथन को उद्धृत कर अपना पक्ष प्रस्तुत किया है - उससे हमारे वक्तव्य का समाधान नहीं होता । आगम तो हमारे वक्तव्य का समर्थन करता है । आगम का उद्धरण हम कथन नं. ४८ के समाधान में दे आये हैं । रही युक्ति की वात, सो आगम में आगम के विरुद्ध अनुभव और युक्ति उपयोगी नहीं हो सकती। यहां उसके कथन के समाधानस्वरूप जो कुछ लिखा जा रहा है, वह आगम के अनुसार ही लिखा है; इसलिये प्रकृत में युक्ति, अनुभव और इन्द्रियप्रत्यक्ष की दुहाई देना अपनी अनभिज्ञता को ही सूचित करता है । __ . कथन नं. ५२ का समाधान :-जव समीक्षक पर्यायशक्ति विशिष्ट द्रव्यशक्ति ही कार्योत्पत्ति में कार्यकारी होती है, उसे पूर्वपक्ष भी नहीं झुठलाता है, ऐसा स्वीकारता है तो उसे उक्त उपादान के अनुसार कार्य की उत्पत्ति के समय अनुकूल बाह्य निमित्त की निमित्तता भी स्वीकार कर लेनी चाहिये, क्योंकि इन दोनों में कालप्रत्यासत्ति का नियम है । कथन नं. ५३ का समाधान :-समीक्षक ने हरिवंश पुराण के श्लोक नं. ७१-७२ के आधार पर देवशक्ति को जो द्रव्यशक्ति के रूप में अभिप्रेत किया है, पर्यायशक्ति के रूप में नहीं, सो यह उस पक्ष का स्वकल्पित कथन मात्र है, क्योंकि हम यह इसी कथन में वतला आये हैं कि केवल द्रव्यशक्ति कार्योत्पत्ति में समर्थन नहीं होती और केवल पर्यायशक्ति भी कार्योत्पत्ति में समर्थ नहीं होती । इसलिये प्रत्येक कार्य में पर्यायविशिष्ट द्रव्यशक्ति ही कार्यकारी मानी गई है। यही अर्थ
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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