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भोर उसके स्वीकार हो जाने पर दोनों ओर के विद्वानों को मिलकर प्रश्न तैयार करने थे ।
किन्तु मध्यस्थ का चुनाव होने के बाद श्रा. स्व. श्री पं. मक्खनलाल जी ने छह प्रश्न रखे । वे हमें दिये भी गये । पर किसके ये प्रश्न हैं ऐसा हमारी प्रोर से पूछने पर हमें यह बतलाया गया कि अभी हमारी ओर के विद्वानों का चुनाव हो जाने पर हस्ताक्षर होते रहेंगे। तब हमारी ओर से यह कहा गया कि यदि आपकी ओर के विद्वानों में प्रतिनिधि नहीं चुने गये हैं तो एक के हस्ताक्षर कराकर मध्यस्थ के द्वारा हम लोगों को दीजिये । तब दूसरी ओर के विद्वानों ने श्री स्व. पं. मक्खनलाल जी के हस्ताक्षर करा दिये । जिस समय यह सब काम हो रहा था उस समय भी व्याकरणाचार्य वहाँ उपस्थित थे, पर वे चुप रहे आये, यह सब होने दिया । श्रव हमारे विषय में कुछ भी लिखने और उसको पुस्तक में छापने से क्या फायदा यह वही जानें। हम तो समझते हैं कि हमारे विषय में मनगढंत लिखकर व्याकरणाचार्यजी अपनी कमजोरी को ही प्रदर्शित कर रहे हैं या अपनी कमजोरी को ही प्रदर्शित करने के समान है । वस्तुतः देखा जाय तो इस चर्चा में व्याकरणाचार्यजी मुख्य नहीं थे । उसी ओर के दूसरे विद्वानों ने खानिया चर्चा के बाद ही अपना पिण्ड छुड़ा लिया और व्याकरणाचार्य तीसरे दौर से मुखिया बन गये । तीसरे दौर का वाचन भी दिल्ली में उन्होंने कराया था । उस पर किसी दूसरे विद्वान के भी हस्ताक्षर हम देखते तो मान लेते कि इस लिखान में दूसरे विद्वान (प्रतिनिधि विद्वान ) भी सहमत हैं । हमारी प्रोर के विद्वानों पर तो यही छाप पड़ी है कि यह लिखान केवल व्याकरण चार्य का ही है । वे ही श्रव समीक्षा के लेखक बन गये हैं ।
फिर भी कोई कह सकता है कि यदि आप लोग ऐसा समझते थे तो उनके तीसरे दौर के कथन पर आपने लेखनी क्यों चलाई ? इस पर हमारा यह कहना है कि लेखनी हमारी ओर से इसलिए चलाई गई कि असतप्रचार न होने पाये । हम समीक्षा का समाधान भी इसी अभिप्राय से लिख रहे हैं । यहाँ भी हार-जीत का सवाल नहीं है । सवाल असतप्रचार को रोकने का है । वह रुके या न रुके, वह परमार्थ से हमारे हाथ में नहीं है । जिनागम को यथावत् रूप से प्रस्तुत करना हमारा काम है |
इसी प्रसंग से तीसरे या चौथे दिन की घटना को ( नियम बनने के दिन से चौथा दिन, और चर्चा प्रारम्भ होने के दिन से तीसरा दिन ) हम यहाँ व्याकरणाचार्य जी के समक्ष प्रस्तुत कर देना उचित समझते हैं। उस समय भी व्याकरणाचार्य जी बैठक में उपस्थित थे । हुग्रा यह कि पहले दिन की शंकाओं को जनरल बताकर उन शंकाओं के आधार से लिखे गये लेखों को पुत्रपक्ष बताकर तीसरे दिन अपने ( उस ओर के विद्वानों ) द्वारा लिखे गये लेखों को प्रत्युत्तर लिखने का प्रयत्न नहीं करते। साथ ही उन्हें पढ़कर यह घोषणा भी की कि इस प्रकार हमारे द्वारा लिखे गये लेखों के आधार पर प्रथम दौर समाप्त हुआ । इसका अर्थ यह हुआ कि उस और के विद्वानों में हार-जीत का ख्याल प्रारम्भ से ही था और उनकी यह इच्छा रही कि हम लोग किसी प्रकार दूसरी ओर के विद्वानो को पूर्वपक्ष बनाकर हम समाधानकर्ता बन जायें यह स्थिति हमारी ओर के विद्वानों ने उसी समय भांप ली थी। इसलिये विवश होकर हम लोगों को यह निर्णय लेना में पड़ा कि हम इस चर्चा को पूर्वपक्ष कभी नहीं बनने देंगे। दूसरी ओर के विद्वानों के मन पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष समाया हुआ था, अतएव निर्णय लिया कि इन्हें पूर्वपक्ष बनाकर ही इस चर्चा को पूरी करेंगे । यही कारण है कि हमारी ओर से तीसरे या चौथे दिन के बाद