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अनुसार परमार्थ से कोई भी पररूप निमित्त नहीं होता, वाह्यवस्तु में प्रयोजनवश उपचार से निमित्त व्यवहार अवश्य किया जाता है । ( स. पू. ११७ )
आगे समीक्षक ने तस्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. ४१० के उद्धरण को ख्याल 'रखकर जो यह लिखा है कि " व्यवहारनय भी व्यवहारकथन में उसी प्रकार वास्तविक सिद्ध होता है, जिस प्रकार निश्चयनय निश्चय के कथन में वास्तविक है ।" सो इस सम्बन्ध में उसे यह समझ लेना चाहिये कि निश्चयनय वस्तु के स्वरूप को कहता है, जबकि व्यवहारनय वस्तु में श्रारोपित धर्म का कथन करता है अर्थात वस्तु में अन्य के धर्म का जो आरोप किया गया है, ऐसा कहना यथार्थ है, इतना ही प्रसद्भूत व्यवहारनय स्वीकार करता है । और यही कारण है कि निश्चयनय प्रतिपेधक माना गया है और व्यवहारनय उसके द्वारा प्रतिषेध्य माना गया है । अतएव गोलमाल के शब्दों द्वारा व्यवहार को नूतार्थ ( वास्तविक ) सिद्ध करने का प्रयत्न करना उपयोगी नहीं कहा जा सकता ।
आगे समीक्षक ने आ. अमृतचंद्रदेव के "जइ जिरणमयं पवज्जह" इत्यादि वचन को उद्धत कर जो अपने मत के समर्थन का प्रयत्न किया है, सो उसे यह समझ लेना चाहिये कि सद्भूत व्यवहार भी व्यवहार कहलाता है और यहां मुख्यतया उसी से प्रयोजन है । हमने जहां भी व्यवहार को पराश्रित विकल्प कहा है, वहां मुख्यतया प्रसद्भूत व्यवहारनय से ही प्रयोजन रहा है । श्राशा है समीक्षक इस तथ्य को हृदयंगम करेगा । ( स. पू. ११७-११८ )
आगे खा. त. च. पृ. ५७ में आये हुए त श्लो. वा. पृ. ४१० के "व्यवहारनयादेव" इत्यादि वचन को उद्धृत कर समीक्षक ने यह लिखा है कि " परन्तु प्रश्न फिर भी श्रसमाहित रहता है" इत्यादि सो उसे यह ध्यान में ले लेना चाहिए कि जैसे एक पुरुष से दूसरे पुरुष को भिन्न समझने में वेत निमित्त हो जाता है, और उसी आधार पर हम वेतवाले व्यक्ति को दंडी कहते हैं । उसी प्रकार निमित्त भी विशेषरण होकर एक पर्याय से दूसरी पर्याय में वह भेद का सूचक होता है । तत्त्वार्थ श्लोक. वार्तिक के उक्त वचन से यही तथ्य फलित किया गया है। उक्त वचन का अन्य कोई प्रयोजन नहीं है । ( स प . ११८ . )
आगे इसी पृष्ठ में जो समीक्षक ने स्व पर प्रत्यय कार्य की चर्चा की है, तो स्व-पर प्रत्यय कार्य दो प्रकार के होते हैं - एक प्रायोगिक और दूसरा वैखसिक । जो प्रायोगिक कार्य होते हैं, वे बुद्धिपूर्वक होते हैं और जो वैखसिक कार्य होते हैं, वे पुरुष के प्रयत्न के बिना ही होते हैं । इन दोनों प्रकार के कार्यों में वाह्य निमित्त का स्थान समान ही रहता है। स्वरूप से कोई भी निमित्त प्रेरक नहीं होता, इस सम्बन्ध में समीक्षक ने यत्र-तत्र जो कुछ भी टीका टिप्पणी की है, वह आगम विरुद्ध होने से ग्राह्य नहीं मानी जा सकती ।
समीक्षक ने हमारे अनेक वक्तव्यों का विचार करते हुए अन्त में जो बाह्य निमित्त को अन्य के कार्य में सहायक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है तो यहां भी वही प्रश्न उपस्थि होता है कि वाह्य निमित्त अन्य के कार्य में स्वरूप से सहायक होता है या उसमें सहायकपने का उपचार किया जाता है । स्वरूप से यदि सहायक माना जाता है तो कार्यद्रव्य से उसे अभिन्न मानना पड़ेगा, और ऐसी अवस्था में दो द्रव्यों में एकता माननी पड़ेगी । और यदि उसमें सहायकपने का उपचार किया