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निमित्त माने गये हैं । तथा भिन्न क्षेत्र में स्थित जो अन्य द्रव्य हैं और उनकी पर्यायें हैं, वे जीव की संयोगी पर्याय में उपचरित श्रसद्भूत व्यवहारनय से निमित्त माने गये हैं । इतनी विशेषता है कि बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्ट वुद्धि होने पर ही उनमें निमित्तता स्वीकार की गई है । अन्यथा उनमें उपचरित निमित्तता भी नहीं वनती । यह इष्टानिष्ट बुद्धि सर्वत्र अनुभव में प्राती है ; नहीं आवे तो भी वह रहती अवश्य है ।
आगे (स० पृ० ६ε में) समीक्षक ने "कुम्भकार घट का कर्ता है" इस वचन को लेकर जो यह लिखा है कि " पूर्वपक्ष (समीक्षक) की मान्यता के अनुसार वह (असद्भूत व्यवहारनय का विषय ) अपने ढंग से परमार्थ, वास्तविक और सत्य सिद्ध होता है," तो हम यह नहीं समझ पाये कि उसके मतानुसार यह " ढंग" क्या है, जिसके श्राधार पर वह श्रसद्भूत व्यवहारनय के विषय को भी परमार्थ वास्तविक और सत्य सिद्ध करना है । लौकिक दृष्टि से कहे तो बात दूसरी है, क्योंकि लौकिक दृष्टि से जो जिसका नहीं होता, निमित्त नैमित्तिक सम्वन्धवश वह उसका कहा जाता है ।
आगे हमने जो लिखा कि "कुंभकार यद्यपि घट का कर्ता नहीं होता, तथापि उसको घर्ट का कर्ता कहने से दृष्टार्थ अर्थात् निश्चयार्थ का ज्ञान हो जाता है, तो इतने मात्र कथन से कुंभकार घट की उत्पत्ति में परमार्थ से सहायक सिद्ध नहीं हो जाता, क्योंकि यदि किसी एक वस्तु से दूसरी वस्तु की सूचना मिलती है, तो वह सूचना मात्र देने में कारण हुई । इतने मात्र से उसे अन्य के कार्य की क्रिया करने में परमार्थ में सहायक कैसे माना जाय ? मिट्टी ने जो घट की उत्पत्तिरूप क्रिया की, वह तो कुंभकार की सहायता के विना अकेले ही की है । श्रागम में इस विपय को स्पष्ट करते हुए सर्वत्र " स्वयं" पद आया है; वह इसी अर्थ में श्राया है । समीक्षक हमारे इस कथन को आकाश कुसुम के समान लिखे या श्रौर जो उसके मन में आवे तो लिखता रहे, तब भी वस्तुस्थिति में कोई फरक नहीं पड़ता ।
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कथन ३२ का समाधान :- समाक्षक ने तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. १५१ के " यदनन्तर " इत्यादि... - वचन के हमारे द्वारा किये गये अर्थ को असंगत बतलाते हुए लिखा है कि "सहकारी कारण के सद्भाव में भी वाधक कारण के उपस्थित हो जाने पर अथवा विवक्षित वस्तु में कार्य की उपादान शक्ति का अभाव रहने पर कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है ।" तथा इसके समर्थन में एक उदाहरण उसने १३ वें गुरणस्थान के प्रथम समय का देकर लिखा है कि “१३वें गुणस्थान के प्रथम समय में मोक्षमार्ग की पूर्णता हो जाने पर भी बाघक कारणभूत योग और प्रघातिया कर्मों का सद्भाव रहने के कारण तथा कुंभकार के घटानुकूल व्यापाररूप सहायक कारण के सद्भाव में भी उपादान शक्ति रहित वालू मिश्रित मिट्टी घटोत्पत्ति नहीं होती है, अतः उक्त वचन का अर्थ यह करना चाहिए कि जिसके अनन्तर ही जो नियम से होता है, वह उसका सहकारी कारण है, और दूसरा कार्य है ।"
तो समीक्षक का यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि तत्वार्थश्लोकवार्तिक के उक्त वचन में "जिसके अनन्तर जो नियम से होता है - यह कहा है, जबकि १३वें गुणस्थान के प्रथम समय में मोक्षमार्ग की पूर्णता नहीं होती, इसलिए उसकी पूर्णता न होने के कारण ही वहां बारहवें गुरणस्थान 1. यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत् कार्यमिति ।