________________
२ ]
यह श्वेताम्बर परम्परा भी स्वीकार करती है । दूसरे वे वस्त्र का त्याग कर पुरुषों के समान निर्द्वन्द्व नहीं हो सकती । उनके चित्त में पुरुषार्थहीनता बनी ही रहती है । फिर भी उक्त विवाद इतना चला कि स्वर्गीय आचार्य शान्तिसागरजी महाराज भी इस विवाद में घसीट लिये गये और जिन विद्वानों का यह कहना था कि ९३ सूत्र में “संजद" पद नहीं चाहिये, उन्होंने महाराज से भी यह घोषणा करा दी कि इस सूत्र में " संजद" पद नहीं होना चाहिये ।
सूत्र
इसी प्रसंग में बम्बई की दिगम्बर जैन समाज ने दोनों ओर के विद्वानों को इसका निर्णय करने के लिए श्रामन्त्रित किया था। उनमें दूसरी ओर के विद्वानों में स्व. श्री पं. मक्खनलालजी शास्त्री, स्व. श्री क्षुल्लक सूरसिंह जी तथा स्व. श्री पं. रामप्रसादजी शास्त्री मुख्य थे । तथा 93 वें में संजद पद चाहिये इस पक्ष में हम तो थे ही, साथ ही स्व. मेरे गुरूजी पं. वंशीवर जी न्यायाचार्य और श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री मुख्य थे । शंका-समाधान के रूप में तीन दिन तक यह चर्चा चली । उस ओर स्व. श्री पं. मक्खनलालजी शास्त्री लिखते थे व इस ओर से मैं लिखता था । जिस कापी में उस श्रोर के विद्वान लिखते थे, उसी में हम लोग भी लिखते थे । तीन दिन तक इसी प्रकार यह चर्चा चलो । अन्त में समाज ने यह चर्चा यह कहकर कि हमने तीन दिन के लिए ही ग्रामंत्रित किया था यह चर्चा बन्द कर दी । जिस कापी का हम दोनों उपयोग करते थे उसे गायव कर दिया गया। किसने उस कापी को रख लिया यह हम नहीं जानते । इतना हम अवश्य जानते हैं कि उस समय बम्बई की समाज उस ओर के विद्वानों के पक्ष में थी । इस समय भी अधिकतर जैन समाज की वही स्थिति बनी हुई है। ऐसा क्यों है ? उसका कारण है, क्योंकि वह अध्यात्मविषयक प्ररूपणा को एकान्त कहकर टाल देती है । वह श्रसद्भूत व्यवहार क्रिया को ही परमार्थ मानती है ।
(2) दूसरा प्रसंग तव प्रस्तुत हुआ था जब प्रा. पं. श्री मक्खनलालजी शास्त्री ने अपने "जैन दर्शन" नामक पत्र द्वारा शास्त्रार्थं का हमें चेलेंज दिया था। उस चैलेंज में मैं तो था ही श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और सम्भवतः श्री पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य भी थे । श्री पं. कैलाश चन्द्रजी शास्त्री ने अपने "जैन सन्देश " पत्र द्वारा उत्तर दिया या नहीं यह हमें मालुम नहीं । श्री पं. पन्नालालजी सा. चुप रहे प्राये ऐसा लगता । हमारे सामने यह प्रश्न अवश्य था कि उस चेलेंज़ को मैं स्वीकार करू ं या न करु, क्योंकि उस समय हम आँख मींचकर श्रविवेक से सोनंगढ़ के समर्थक माने जाते थे । अन्त में मैंने विचार किया था कि दोनों श्रोर के विद्वान हम सब एक ही धर्म में आस्था रखते हैं और उसी आगम को स्वीकार करते हैं जिस श्रागम को माव्यंम बनाकर इस चैलेंज को हमें म्वीकार करना है | हमारे सामने समस्या बहुत बड़ी थी। इस समस्या का समाधान सोचते समय हमें यह ख्याल आया कि हम मान्य पं. श्री मक्खनलालजी को यह क्यों न लिखें कि आप "जैनदर्शन" नाम का एक अखवार निकालते ही हैं । इस समस्या को उसी के माध्यम से चलने दिया जाय । आप भी अपने पक्ष को उपस्थित करें, और हम भी उस विषय में ग्रागम से जो समझते हैं वह लिखें । किन्तु उक्त पण्डित जी इस बात के लिए तैयार नहीं हुये। उन्होंने हमें यह साफ लिख दिया कि हम अपने पत्र को आपके विचारों के प्रचार के माध्यम नहीं बनने देंगे । इसमें सन्देह नहीं कि समाज की गति - विधि को देखकर वे अपने विचार बनाते थे । आगम उनके लिए केवल प्रसद्भूत व्यवहारनय के अनुसार विचारों का प्रचार करने में ही मुख्य था । उसी को वे सब कुछ मानते थे । निश्चयनय की