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बाह्यकारणमीमांसा इस कथनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कर्मोदयको जो करणनिमित्त या अनुग्राहक, उपकारक आदि कहा जाता है वह उसके व्यवहार से निमित्तमात्र होनेसे ही कहा जाता है, परमार्थसे तो कर्मोदयके कालमें जीवके जितने भी कार्य होते हैं उन्हें जीव ही अपने उस-उस समयके निश्चय उपदानके अनुसार परिणमन स्वभावके कारण ही करता है।
इसी तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ० १५१ में जो यह वचन आया है
तदेवं व्यवहारनयसामाश्रयणे कार्य-कारणभावो द्विष्ठः सम्बन्ध सयोगसमवायादिवत् प्रतीतसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपित', सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रह सूत्रसमाश्रयणे तु न कदाचित् कश्चित् सम्बन्ध. अन्यत्र कल्पनामात्रात् इति सर्वमविरुद्धम् । ___ इसलिये इस प्रकार व्यवहारनयका आश्रय करने पर कार्य-कारण भावरूप दो द्रव्योंमे स्थित सम्बन्ध संयोगसम्बन्ध और समवायसम्बन्ध के समान प्रतीतिसिद्ध होनेसे परमार्थस्वरूप ही है, किन्तु कल्पनारोपित । नही है, क्योंकि यह सभी प्रकारसे अनवद्य है । संग्रहनय और ऋजुसूत्रका आश्रय करने पर तो किसीका अन्यके साथ कल्पना मात्रको छोड़कर कोई सम्बन्ध नहीं है । इस प्रकार सब कथन विरोध रहित है।
वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है। किन्तु बौद्ध पर्यायमात्र वस्तुको मानते हैं, वस्तु सामान्यात्मक भी होती है इसे सत्त्व, प्रमेयत्व आदि धर्मोके आधारपर वे स्वीकार ही नहीं करते । उन्हीको लक्ष्यकर आचार्य विद्यानन्दने उक्त उत्तर दिया है। संग्रहनय वस्तुको मात्र सामान्यमात्र स्वीकार करता है और ऋजुसूत्रनय मात्र पर्यायमात्र स्वीकार करता है। किन्तु नैगमनय गौणमुख्यभावसे सामान्य और विशेष दोनोंको स्वीकार कर दो द्रव्योंके संयोगसम्बन्धको और एक द्रव्यमें सामान्यविशेषकी अपेक्षा समवाय सम्बन्ध-तादात्म्य सम्बन्धको भी स्वीकार करता है । इसलिये यहाँ पर व्यवहारनय नैगमनय) से दो द्रव्योंमे किये गये कार्य-कारणभावको प्रयोजन विशेषकी अपेक्षा प्रतीतिसिद्ध होनेसे परमार्थस्वरूप बतलाया गया है। फिर भी वह काल्पनिक है यह बात | संग्रह नय और ऋजुसूत्र नयसे स्पष्ट की गई है।
इसी प्रकार अष्टसहस्रीमे जो यह वचन आया है
तदसामर्थ्यमखंडयदकिंचित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ? तत्त्खण्डने वा स्वभावहानि., अव्यतिरेकात । पृ० १०५ ।