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जैनतत्वमीमांसा होता है और पुद्गलोंके लिए हुआ है तो विस्रसानिमित्तोंमें अन्तर्भाव होता है। व्यवहारसे प्रयोग निमित्तके अर्थमें समयसार गाथा ८४ की आत्मख्याति टीकाका यह वक्तव्य दृष्टव्य है । यथा___ बहिप्प्य-व्यापकभावेन कलशसम्भवानुकूल व्यापारं कुर्वाण. " कुलाल कलश करोति ....." इति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्वयवहार।
बाह्य व्याप्य-व्यापक भावसे कलशकी उत्पत्तिके अनुकूल व्यापार करनेवाला कुम्भकार कलशको करता है ऐसा लोगोंका अनादि कालसे रूढ व्यवहार चला आ रहा है। ____ यहाँ सर्वप्रथम सादृश्य सामान्यके आधारपर बाह्य व्याप्तिको स्वीकार करके कुम्भकार और मिट्टी द्रव्यको एक स्वीकार किया गया है और व्यवहारसे कुम्भकारके घट उत्पत्तिके अनुकूल व्यापारको देखकर उसमे मिट्टीके व्यापार करनेको स्वीकार किया गया है तब जाकर लौकिक लोग अनादि कालसे इस जातिका व्यवहार करते आ रहे है कि कुम्भकार घट बनाता है, वह खदानसे मिट्टी लाता है आदि । यह प्रयोगनिमित्तिका उदाहरण है।
फिर भी जो मनीषी अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और अनुभवको दुहाई देकर जीवो और पुद्गलोको व्यवहारसे कहे जानेवाले उत्पादक, कर्ता आदि निमित्तको मुख्य कर्ताक स्थानपर बिठलाकर यह लिखते और कहते हुए नहीं थकते कि कार्यसे अव्यवहित पूर्व समयवर्ती उपादानमे कार्य करनेके सन्मुख अनेक उपादान शक्तियाँ होती है, इसलिये जब जैसे बाह्य निमित्त मिलते हैं उन्हीके अनुसार कार्य होता है तो उनका ऐसा लिखना और कहना कैसे भ्रान्त है इस तथ्यका उक्त उल्लेखोंसे विशद रूपसे ज्ञान हो जाता है ।
प्रकृतमें पुद्गलरूप कर्मके विलसा निमितत्त्वके विषयमे तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक अ० ५ सू० २० का यह वचन दृष्टव्य है
अत्रोपग्रहवचन सद्वेद्यादिकर्मणा सुखाद्युत्पत्ती निमित्तमात्रत्वनानुग्राहकत्वप्रतिपत्त्यर्थम्, परिणामकारण जीव., तस्यैव तथ्यपरिणामात् ।
यहाँ सूत्रमे जो उपग्रह वचन आया है वह सुखादिकी उत्पत्तिमें सातावेदनीय आदि कर्मों के निमित्त मात्र होनेसे अनुग्राहकपनेकी प्रतिपत्तिके लिये आया है, वस्तुतः सुखादिरूप परिणामका यथार्थ कारण तो जीव ही है, क्योंकि उसीके सुखादिरूप परिणाम होता है।