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________________ जैनतत्त्वमीमांसा प्राय जैन संस्थाओं में जो दर्शनशास्त्रका अध्ययन-अध्यापन होता है वह मुख्यत नयदृष्टिको गौण करके ही होता है, इसलिये अधिकतर विद्वानोंकी वासना उसी परिधिमें बनी रहनेके कारण वे नयदृष्टिसे न तो वस्तुस्थितिको हृदयंगम करनेका प्रयत्न ही करते हैं और न स्वाध्यायप्रेमियोंके समक्ष इस तथ्यपूर्ण स्थितिको स्पष्ट करने में भी समर्थ होते हैं । अधिकतर स्वाध्याय-प्रोमियोंके चित्तमें जो द्विविधा बनी रहती है उसका मुख्य कारण यही है | हम इस सस्करणमें 'मोक्षमार्ग मीमांसा' अध्याय और लिखना चाहते थे । पर अस्वस्थ वृत्तिके कारण हम ऐसा नहीं कर सके । लगभग चार वर्ष बीत जानेपर भी हम अभी भी पूर्ण स्वस्थ नहीं हो सके हैं । यह तो भगवती जिनवाणी माताका अनुग्रह है साथ ही स्वधर्मके संस्कारो से हमारा आत्मा ओत-प्रोत है कि अस्वस्थवृत्ति के रहनेपर भी हम इस संस्करणको यथासम्भव पूर्ण करने सफल हुए है । नियम है कि पूर्णरूपसे निश्चयस्वरूप होनेके पूर्वतक यथासम्भव निश्चयव्यवहारकी युति युगपत् बनी रहती है । जहाँसे निश्चयस्वरूप मोक्षमार्गका प्रारम्भ होता है वहींसे प्रशस्त रागस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्गका प्रारम्भ होता है । न कोई पहले होता है और न कोई पीछे, दोनों एक साथ प्रादुर्भूत होते हैं । इतना अवश्य है कि निश्यस्वरूप मोक्षमार्गके उदय कालमें उसके प्रशस्त रागरूप व्यवहार मोक्षमार्गको चरितार्थता लक्ष्यमें न आवे इस रूपमें बनी रहती है । और जब यह जीव अरुचिपूर्वक हटके विना व्यवहार मोक्षमार्गके अनुसार बाह्य क्रियाकाण्डमें प्रवृत्त होता है तब इसके जीवन में निश्चयस्वरूप मोक्षमार्गकी जागरूकता निरन्तर बनी रहती है । वह दृष्टिसे ओझल नहीं होने पाती । यह इसीसे स्पष्ट है कि निश्चय मोक्षमार्गका अनुसरण व्यवहार मोक्षमार्ग करता है । व्यवहार मोक्षमार्गका अनुसरण निश्चय मोक्षमार्ग नही करता है, क्योंकि जैसे-जैसे निश्चय मोक्षमार्गसे जीवन पुष्ट होता जाता है वैसे-वैसे व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गका पीछा करना छोड़ता जाता है । हम चाहते थे कि इन तथ्योंको आगमकी साक्षीपूर्वक विशदरूपसे स्पष्ट किया जाय, पर हम ऐसा नहीं कर सके। फिर भी जैनतत्त्वमीमांसाके विविध अध्यायो द्वारा हमने इस विषयपर भी यथासम्भव प्रकाश डालनेका उपक्रम किया ही है । जिज्ञासु धर्मबन्धु इन तथ्योंको ध्यान में रखकर इसका स्वाध्याथ करेंगे ऐसी हमारी अपेक्षा है ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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