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जेनतत्त्वमीमांसा ___ मोहनीय कर्मके क्षयसे तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मक क्षयसे केवलज्ञान होता है ।।१०-१॥
यहाँपर केवलज्ञानकी उत्पत्तिका बाह्य हेतु क्या है इनका निर्देश करते हुए बतलाया है कि वह मोहनीय कर्मके क्षयके बाद शानावरणादि तीन कोंके क्षयसे होता है । यहाँपर क्षयका अर्थ प्रध्वंसाभाव है, अत्यन्ताभाव नहीं, क्योंकि किसी भी द्रव्यका पर्यायरूपसे ही व्यय होता है, द्रव्यरूपसे नहीं । अब विचार कीजिए कि ज्ञानावरणादिरूप जो कर्मपर्याय है उसके नाशसे उसकी अकर्मरूस उत्तर पर्याय प्रकट होगी कि जीवकी केवलज्ञान पर्याय प्रगट होगी' । एक बात और है वह यह कि जिस समय स्वाश्रित केवलज्ञान पर्याय प्रगट होती है उस समय तो ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभाव ही है, इसलिए यह प्रश्न होता है कि यहाँ ज्ञानावरणादि कर्मोके अभाव रूप क्षयसे कौनसा अभाव लिया गया है-भावान्तर स्वभाव अभाव लिया गया है या सर्वथा अभाव लिया गया हैं ?
यदि कहो कि यहाँपर अभावसे सर्वथा अभाव नही लिया गया है। किन्तु भावान्तर स्वभावरूप अभाव लिया गया है, तो हम पूछते हैं कि वह भावान्तर स्वभावरूप अभाव क्या वस्तु है ? इसका नाम निर्देश करना चाहिए। यदि कहो कि यहाँ पर भावान्तर स्वभाव अभावसे ज्ञानावरणादि कर्मोकी अकर्मरूप उत्तर पर्याय ली गई है तो हम पूछते हैं कि यह आप किस आधारसे कहते है ? उक्त सूत्रसे तो यह अर्थ फलित होता नहीं। स्पष्ट है कि यहाँ पर जीवकी केवलज्ञान पर्याय प्रगट होनेका जो मूल हेतु उपादान कारणरूपसे परिणत स्वयं आत्मा है उसे तो गौण कर दिया गया है और जो ज्ञानकी मतिज्ञान आदि पर्यायोंका उपचरित हेतु था उसके अभावको हेतु बनाकर उसकी मुख्यतासे यह कथन किया गया है। यहाँ दिखलाना तो यह है कि जब केवलज्ञान अपने स्वभावके लक्ष्यसे प्रगट होता है तब ज्ञानावरणादि कर्मरूप उपचरित हेतुका सर्वथा अभाव रहता है, । क्योंकि निमित्तका अभाव होने पर नैमित्तिकका अभाव होता ही है, परन्तु इसे ( अभावको ) बाहय हेतु बनाकर यों कहा गया है कि ज्ञानावरणादि कर्मोका क्षय होनेसे केवलज्ञान प्रगट होता है । यह व्याख्यानकी शैली है जिसके शास्त्रोंमें पद पदपर दर्शन होते हैं। परन्तु यथार्थ बातको समझे बिना इसे ही कोई यथार्थ मानने लगे तो उसे क्या कहा जाय ? यह तो हम मानते हैं कि व्यवहारकी मुख्यतासे
१ व गतिमनन्तचतुष्टयं प्रयान्ति प्राप्नुवन्ति लोकानमिति । मूला. समय अधिकार गाथा १०, टीका।