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जैनतत्त्वमीमांसा अर्थको ही जाने, अतीत-अनागत कालीन अर्थको न जाने । या निकटवर्ती पदार्थको ही जाने, दूरवर्ती पदार्थको न जाने, क्योंकि पराश्रितपनेके व्यवहारसे मुक्त होनेके कारण उसमें उक्त प्रकारसे सीमा निर्धारित करना सम्भव ही नहीं है। अतः केवलज्ञान त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंको जानता है यह सिद्ध होता है । आगे उसीको बतलाने वाले हैं। २ चेतनपदार्थका स्वतन्त्र अस्तित्व __ यह अनुभवसिद्ध बात है कि ज्ञान जड़ पदार्थों का धर्म तो नहीं है, क्योकि वह किसी भी जड पदार्थमें उपलब्ध नहीं होता। वह जड़ पदार्थों के रासायनिक प्रक्रियाका भी फल नहीं है, क्योंकि जहाँ चेतनाका अधिष्ठान होता है वही उसकी उपलब्धि होती है। जब हम जड़ पदार्थों - का अस्तित्व मानते है तो उसके प्रतिपक्षभत चेतनपदार्थ अवश्य होना चाहिये, अन्यथा पाषाण आदिको जड़ कहना नही बनता । जड़ पदार्थो से चेतन पदार्थ स्वतन्त्र हैं इसकी पुष्टि करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द पचास्तिकायमे कहते हैं
जाणदि पस्दि सन्न इच्छदि सुक्खं विभेदि दुक्वादो।
कुन्वदि हिदहिदं वा भुंजदि जोवो फलं तेसि ॥ १२२ ।। जो जानता-देखता है, सुखकी इच्छा करता है और दुःखसे डरता है, कभी हितरूप कार्य करता है और कभी अहितरूप कार्य करता है तथा उनके फलको भोगता है वह जीव है ॥१२२॥ ____ यहाँ जितने विशेषणो द्वारा जीवका स्वरूपाख्यान किया गया है वे सब धर्म जीवके स्वतन्त्र अस्तित्वको सूचित करते हैं। विषापहार स्तोत्रमें इसी तथ्यको इन शब्दोमें उद्घाटित किया गया है
स्दवृद्धि-नि.श्वास-निमेषभाजि प्रत्यक्षमात्मानुभवेऽपि मूठ ।।
किं चाखिलज्ञेयविवतिबोधस्वरूपमध्यक्षमवैति लोक. ।। २२ ॥ अपनी वृद्धि, श्वासोच्छ्वास और पलकोके उघड़ने-बन्द होनेको धारण करनेरूप आत्माके प्रत्यक्ष अनुभव होनेपर भी मूढजन क्या समस्त ज्ञेय और उनकी पर्यायोके बोधस्वरूप आत्माको प्रत्यक्ष अनुभवते हैं, अर्थात् नही अनुभवते ॥२२॥ ___ इस प्रकार उक्त कथनसे हम जानते हैं कि जानना-देखना, इच्छा करना, सुख-दुखका अनुभवना इन सब धर्मों की जड़के साथ व्याप्ति नहीं है, क्योकि ये सब धर्म जड़ पदार्थोमें दृष्टिगोचर नहीं होते। इनको बड़