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जैनतस्वममसा
को उपदेश है । अर्हत्प्रवचन में कहा भी है- जो द्रव्यके आश्रयसे हों और स्वयं गुण रहित हों वे गुण हैं। अन्यत्र भी कहा है
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प्रत्येक द्रव्यके त्रिकाली स्वरूपका ख्यापन करनेवाला गुण है और द्रव्यका विकार पर्याय कहा गया है। इन दोनोंसे सदा काल अयुतसिद्ध द्रव्य है ।
शंका- यदि गुण अस्तिरूप है तो हम जो कह आये हैं कि उसको विषय करनेवाला तीसरा नय होना चाहिये ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य सामान्य और विशेष इन दो रूप है । उनमें से सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एक ही अर्थके वाचक शब्द हैं। तथा विशेष, भेद और पर्याय ये तीनों पर्यायवाची शब्द है । उनमेंसे सामान्यको विषय करनेवाले नयका नाम द्रव्याथिक है और विशेषको विषय करनेवाले नयका नाम पर्यायार्थिक है । इन दोनोंसे अयुतसिद्ध समुदायरूप द्रव्य कहा जाता है। अतएव गुणको विषय करनेवाला तीसरा नय नहीं हो सकता, क्योंकि नय विकल्पोंके अनुसार प्रवृत्त होते हैं । सामान्य और विशेषका समुदित रूप प्रमाणका विषय है, क्योंकि प्रमाण सकलादेशी होता है ।
अथवा गुण ही पर्याय है ऐसा निर्देश करना चाहिये । अथवा उत्पाद, व्यय और धोग्य हैं, पर्याय नहीं है और उनसे भिन्न गुण नहीं हैं । इसलिये गुण ही पर्याय हैं । ऐसी अवस्थामें समानाधिकरणमें मनुष् प्रत्यय करनेपर गुण-पर्यायवद् द्रव्यम्' यह निर्देश बन जाता है ।
आशय यह है कि गुणोंका सामान्य में अन्तर्भाव होनेपर वे द्रव्यार्थिक नयके विषय हैं और भेद विवक्षामें गुण और पर्यायोंमें अभेद स्वीकार करने पर वे पर्यायार्थिक नयके विषयरूपसे स्वीकृत किये जाते हैं, इसलिये द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही नय सिद्ध होते है, तीन नहीं ।
तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें भी द्रव्यके उक्त लक्षण पर विचार करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं
नन्वेवमत्रापि पर्यायवद् द्रव्यमित्युक्ते गुणबदित्यनर्थकम्, सर्वद्रव्येषु पर्यायबन्धस्य भावात् । गुणवदिति चोक्ते पर्यायवदिति व्यर्थम् तत एवेति तदुभय ari darer किमर्थ मुक्तम् ।
शंका- जो गुण- पर्यायवाला हो वह द्रव्य है इस लक्षणमें भी जो