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जैनसत्त्वमीमांसा और न उन अनन्त पदार्थों में अपने अपने द्रव्यादिको अपेक्षा मेदक रेखा ही खींची जा सकती है। आचार्य समन्तभद्रने अत्यन्ताभावके नहीं मानने पर किसी भी द्रव्यका विवक्षित द्रव्यादिरूपसे व्यपदेश करना सम्भव नहीं है यह जो आपत्ति दी है वह इसी अभिप्रायको ध्यानमें रख कर ही दी है। साथ ही गुण-पर्यायोंके किंचित् मिलित स्वभावरूप वह स्वयं ही एक है और एक नहीं है, नित्य है और नित्य नहीं है, तत्स्वरूप है और तत्स्वरूप नहीं है तथा अस्तिरूप है और अस्तिरूप नहीं है, क्योंकि द्रव्यार्थिक दृष्टिसे उसका अवलोकन करनेपर जहाँ वह एक, नित्य, तत्स्वरूप और अस्तिरूप प्रतीतिमें आता है वहाँ पर्यायार्थिकदृष्टिसे उसका अवलोकन करनेपर वह एक नहीं है अर्थात् अनेक है, नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है, तत्स्वरूप नहीं है अर्थात् अतत्स्वरूप है और अस्तिरूप नहीं है, अर्थात् नास्तिरूप है ऐसा भी प्रतीतिमें आता है। अन्यथा उसमें प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अन्योन्याभावकी सिद्धि न हो सकनेके कारण न तो उसका विवक्षित समयमें विवक्षित आकार हो सिद्ध होगा और न उसमे जो गुणभेद और पर्यायमेदकी प्रतीति होती है वह भी बन सकेगी। आचार्य समन्तभद्रने प्रागभावके नहीं माननेपर कार्यद्रव्य अनादि हो जायगा, प्रध्वंसाभावके नही माननेपर कार्यद्रव्य अनन्तताको प्राप्त हो जायगा और इसरेतराभावके नहीं माननेपर वह एक सर्वात्मक हो जायगा यह जो आपत्ति दी है वह इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर ही दी है। स्वामी समन्तभद्र 'प्रत्येक पदार्थ कथंचित सत् है और और कथंचित् असत् है' इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं :
___ सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् ।
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। १५ ।। ऐसा कौन पुरुष है, जो, चेतन और अचेतन समस्त पदार्थ जात स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा सत्स्वरूप हो हैं, ऐसा नहीं मानता और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा असत्स्वरूप ही हैं, ऐसा नहीं मानता, क्योंकि ऐसा स्वीकार किये बिना किसी भी इष्टतत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकती ॥१५॥
उक्त व्यवस्थाको स्वीकार नहीं करनेपर इष्ट तत्त्वकी व्यवस्था किस प्रकार नहीं बन सकती इस विषयको स्पष्ट करते हुए विद्यानन्दस्वामी उक्त श्लोककी टीकामें कहते हैं
स्वपररूपोपादानापोहमव्यवस्थापाथत्वावस्तुनि बस्तुत्वस्म, स्वरूपाविव