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जन्म के समय होता है। कालान्तरमें वह वही होकर भी अन्य रूप भी । हो जाता है, अन्यथा उसमें बालक, युवा और वृद्ध इत्याविरूपसे विविध अवस्थाएँ दृष्टिगोचर नहीं हो सकती, इसलिए विवक्षामेबसे तत् और मतत् इन दोनों धौको एक ही बस्तुमें स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती। मात्र अन्वयको स्वीकार करनेवाले द्रव्यापिकनयको दृषिके विचार करनेपर तो प्रत्येक पदार्थ हमें सत्स्वरूप ही प्रतीत होता है
और उसी पदार्थको व्यतिरेकको स्वीकार करनेवाले पर्यावाधिकनमकी दृष्टिसे देखनेपर वह मात्र अतत्स्वरूप हो प्रतीत होता है। इसलिए प्रत्येक पदार्थ द्रव्याथिकनयसे तत्स्वरूप ही है और पर्यायाधिकनयसे अतत्स्वरूप ही है।
इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत् भी है और असत् भी है। प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावरूपसे अस्तिरूप ही है, इसलिए तो वह सत् ही है और उसमें परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावका सर्वथा अभाव है इसलिए इस दृष्टिसे वह असत् ही है। प्रत्येक पदार्थकी नित्यानित्यता और एकानेकता इसी प्रकार साध लेनी चाहिये, क्योंकि जब हम किसी पदार्थका द्रव्यदृष्टिसे अवलोकन करते है तो वह जहाँ हमें एक और नित्य प्रतीत होता है वहाँ उसे पर्यायदृष्टिसे देखनेपर उसमें अनेकता और अनित्यता भी प्रमाणित होती है ।
शास्त्रोंमें प्रकृत विषयको पुष्ट करनेके लिए अनेक उदाहरण दिये गये है। विचार करने पर विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्य एक अखण्ड पदार्थ है। इस दृष्टिसे उसका विचार करनेपर उसमें द्रव्यमेद, क्षेत्रभेद कालभेद और भावभेद सम्भव नहीं है, अन्यथा वह अखण्ड एक पदार्थ नहीं हो सकता, इसलिए द्रव्यार्थिकदृष्टि ( अभेददृष्टि ) से उसका अवलोकन करनेपर वह तत्वस्वरूप, एक, नित्य और अस्तिरूप ही प्रतीतिमें आता है। किन्तु जब उसका नाना अवयव, अवयवोंका पृथक-पृथक् क्षेत्र, प्रत्येक समयमे होनेवाला उनका परिणामलक्षण स्वकाल और उसके रूप-रसादि या ज्ञान दर्शनादि विविध भाव इन सबकी दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह एक अखण्ड पदार्थ असत्वरूप, अनेक, अनित्य और नास्तिरूप हो प्रतीतिमें आता है।
प्रत्येक पदार्थ तद्भिन्न अन्य अनन्त पदार्थोसे पृथक होनेके कारण उसमें उन अनन्त पदार्थों का अत्यन्ताभाव है यह तो स्पष्ट है ही, अन्यथा उसका स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा स्वरूपास्तित्व मादि ही सिद्ध नहीं हो सकता