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जैनतत्वमीमांसा नहीं इस विषयको तर्कपूर्ण शंली द्वारा स्पष्ट करते हुए भ० देवसेनकृत नयचक्रकी टीका (प्रकाशक श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री सोलापुर १९४९) में कहते हैं
खलु प्रमाणलक्षणो योऽसो व्यवहारः स व्यवहार निश्चयमनुभयं च गृलनप्यधिकविषयत्वात्कथं न पूज्यनीयः ? नवम्, नपपक्षातीतमात्मानं कर्तुं मशक्यत्वात् । तद्यथा-निश्चयं गृहान्नपि अन्ययोगव्यवच्छेदं न करोतीत्यन्ययोगव्यवच्छेदाभाचे व्यवहारलक्षणभावक्रियां निरोद्धमशक्तः, अतएव ज्ञानचैतन्ये स्थापथितुमशक्य एवासावात्मानमिति । तया प्रोच्यते--निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचैतन्ये संस्थाप्य परमानन्दं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रान्तं करोति समिति पूज्यतम. । अतएव निश्चयनयः परमार्थप्रतिपादकत्वात् भूतार्थः अत्रैवाविश्रान्तदृष्टिर्भवत्यात्मा ।
शका-जो यह प्रमाणलक्षण व्यवहार (विकल्प) है वह व्यवहार, निश्चय और अनुभयको ग्रहण करता हुआ अधिक विषयवाला होनेसे पूज्य क्यों नही ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योकि प्रमाणलक्षण व्यवहार (विकल्प) आत्माको नयपक्षसे अतिक्रान्त करने में समर्थ नहीं है। खुलासा इस प्रकार है-प्रमाणलक्षण व्यवहार निश्चयनयको ग्रहण करके भो अन्ययोग व्यवच्छेद नहीं करता और अन्ययोगव्यवच्छेदके अभावमें वह व्यवहारलक्षण भावक्रिया (पराश्रित विकल्प) को रोकने में असमर्थ है। अतएव वह आत्माको ज्ञानस्वरूप चैतन्यमें स्थापित करनेके लिए असमर्थ ही है। उसीको समझाते हुए कहते है--निश्चयनय तो एकत्वको प्राप्त करनेके साथ आत्माको ज्ञानस्वरूप चैतन्यमे स्थापित कर परमानन्दको उत्पन्न करता हुआ उसे वीतराग करके स्वय निवृत्त होता हुआ उसे (आत्माको) नयपक्षसे अतिक्रान्त करता है, इसलिये वह सब प्रकारसे पूज्य हैं। तथा निश्चयनय परमार्थका प्रतिपादक होनेसे भूतार्थ है, क्योंकि इसी विधिसे आत्मा स्वयंमें अविश्रान्तरूपसे अन्तर्दृष्टि होता है।
यहाँ प्रमाण सप्तभंगोका कोई भी भग मोक्षमार्गमे अनुपादेय है यह स्पष्ट करके नयसप्तभंगीका प्रथम भंग ही प्रयोजनीय है यह सुस्पष्ट किया गया है।
शका-मोक्षमार्गमें नयसप्तभंगीके द्वितीयादि भंग क्यों प्रयोजनीय नही है ?
समाधान-क्योंकि एकत्वको बतलानेवाले निश्चयनयका जो अब