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निश्चय व्यवहारमीमांसा
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असद्भूत व्यवहार है उसकी अपेक्षा इनमें संयोगसिद्धसम्बन्ध माना गया है । यद्यपि रामादि भावोंका जीव तारतम्य दिसलानेके लिए इन्हें अशुद्ध निश्चयरूप कहा जाता है । परन्तु वास्तवमें शुद्ध निश्चयकी अपेक्षा अशुद्ध निश्चय भी व्यवहार ही है यह उक्त कथनका भावार्थ है । बृहद्रव्यसंग्रह गाथा १६ की टीकामें भी इस विषयको स्पष्ट करते हुए लिखा है
तथैवाशुद्धनिश्चयनयेन योऽसौ रागादिरूपो भागबन्धः कथ्यते सोऽपि शुद्ध निश्चयनयेन पुद्गलबन्धः एव ।
उसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनयसे जो यह रागादिरूप भावबन्ध कहा जाता है वह भी शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा पुद्गलबन्ध ही है ।
इनका जीवके साथ संयोगसिद्धसम्बन्ध क्यों कहा गया है इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए मूलाचार गाथा ४८ की टीकामें आचार्य वसुनन्दि संयोगसम्बन्धका लक्षण करते हुए कहते हैं
अनात्मनीनस्यात्मभावः संयोगः । संयोग एव लक्षणं येषां ते संयोगलक्षणा विनश्वरा इत्यर्थः ।
अनात्मीय पदार्थ में आत्मभाव होना संयोग है। संयोग ही जिनका लक्षण है वे संयोगलक्षणवाले अर्थात् विनश्वर माने गये हैं ।
प्रकृत में आचार्य कुन्दकुन्दने रागादि भावोंको जो संयोग लक्षणवाला कहा है वह इसी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि ये बन्धपर्यायरूप होने से अनात्मीय हैं, अतएव मूर्त हैं । तात्पर्य यह है कि रागादिभावोंको आत्मासे संयुक्त बतलाने में उपादानकी मुख्यता न होकर बन्धपर्यायकी मुख्यता है, क्योंकि ये पौद्गलिक कर्मोंके सद्भावमें परलक्षी ही होते हैं, अतः इन्हें मूर्तरूपसे स्वीकार करना न्यायसंगत ही है । प्रकृतमें दृष्टियाँ दो हैं-एक उपादानदृष्टि और दूसरी संयोगहटि । रागादिकको अनात्मीय कहने में संयोगदृष्टिकी ही मुख्यता है, अन्यथा त्रिकाली ध्रुवस्वभाव आत्मामें उपादेय बुद्धि होकर इनका त्याग करना नहीं बन सकता । प्रकृतमें इन्हे मूर्त या पौद्गलिक माननेका यही कारण है ।
इस प्रकार जीवमें होकर भी क्रोधादिभाव मूर्त कैसे हैं यह सिद्ध हुआ और यह सिद्ध हो जानेपर मूर्त क्रोधादिकको जीवका कहना बसदभूत व्यवहारनय है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए ।
सद्भूतव्यवहारनयके समान यह असद्भूतव्यवहारनय भी दो प्रकार
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