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जेनतस्वमीमांसा पर नहीं हो सकती, क्योंकि त्रिकाली ध्रुवस्वभावमें उनका अस्तित्व ही उपलब्ध नहीं होता, ये तो पर्यायधर्म हैं। यदि त्रिकाली ध्रुवस्वभावमें भी उनका अस्तित्व माना जाय तो उनमेंसे ज्ञानके समान उनका कभी भी अभाव नहीं हो सकता। अतएव ये जिसके सद्भाव में होते हैं उसीके परिणाम है ऐसा यहां कहा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य समझना चाहिये । इसी भावको पुष्ट करनेके अभिप्रायसे समयप्राभूतमें आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
एएहि य संबंधी जहेव खीरोदयं गुणेदम्बो ।
ण य इति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ॥५७।। इन वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त भावोंके साथ जीवका सम्बन्ध दूध और पानीके संयोगसम्बन्धके समान जानना चाहिये। इसलिए वे भाव जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह उपयोग गुणके द्वारा उनसे पृथक् है ॥५७॥
यहाँ पर आचार्य महाराजने परस्पर मिश्रित क्षीर और नीरका दृष्टान्त देकर यह बतलाया है कि जिस प्रकार मिले हुए क्षीर और नीरमें सयोगसम्बन्ध होता है अग्नि और उष्ण गुणके समान तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता उसी प्रकार वर्णसे लेकर इन गुणस्थान पर्यन्त सब भावोंका जीवके साथ संयोगसिद्ध सम्बन्ध जानना चाहिये, तादात्म्यसम्बन्ध नहीं।
जिस प्रकार जीवके साथ वर्णादिका संयोगसम्बन्ध है। उस प्रकार जीवमें उत्पन्न हए इन रागादि भावोंका जीवके साथ संयोगसिद्धसम्बन्ध कैसे हो सकता है इस प्रश्नको उठाकर आचार्य जयसेनने इसका समाधान किया है। वे कहते हैं
ननु वर्णादयो बहिरंगास्तत्र व्यवहारेण क्षीरनीरवत् मंश्लेषसम्बन्धो भवतु, न चाभ्यन्तराणां रागावोनां । तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यम् ? नवम्, द्रव्यकर्मबन्धापेक्षया योऽसो असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया । तारतम्यज्ञानपनार्थ रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते । वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थ ।
शंका-वर्णादिक जीवसे अलग हैं, इसलिए उनके साथ जीवका व्यवहारनयसे क्षीर और पानीके समान संश्लेष सम्बन्ध रहा आरो, आभ्यन्तर रागादिकका जीवके साथ संयोगसम्बन्ध नहीं बन सकता। इन दोनोंमें तो अशुद्ध निश्चयरूप सम्बन्ध होना चाहिए?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि द्रव्यकर्मबन्धकी अपेक्षा जो यह