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जनतस्वमीमांसा
इस प्रकार चरणानुयोगमें विवक्षित प्रयोजनसे जो प्रतिपादनशैली स्वीकार की गई है उसे लक्ष्यमें रखकर मुख्यतया ओदायिक आदि भावों को भी आत्मा का स्वीकार कर प्ररूपणा भी गई है । आगे अशुद्ध निश्चयके स्वरूपका निर्देश करते हुए वहाँ लिखा है
शुद्धोऽशुद्धश्च रागाद्या एव आत्मेत्यस्ति निश्चयः ॥ १०३ ॥
रागादिक ही आत्मा है यह अशुद्ध निश्चयनय है । इस श्लोक के उत्तरार्धकी टीका इस प्रकार है-
तथाऽशुद्ध निश्चयोऽस्ति । कथम् । इति किमिति ? भवति, कोऽसी ? आत्मा । के ? रागाद्या एव - रागद्वेषादिपरिणात्मक इत्यर्थ. !
राग-द्वेषादि परिणामवाला आत्मा है बुद्धिमें ऐसा स्वीकारना अशुद्ध निश्चयrय है ।
यहाँ निश्चयनयके शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय ऐसे दो भेद दिखलानेका कारण यह है कि साध्यकी दृष्टिसे शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव आत्माको स्वीकार करके भी प्रयोजन विशेषसे आत्माको रागादिरूप स्वीकार किया गया है। अब आगे इस दृष्टिसे व्यवहारनयके भेदोको सोदाहरण स्पष्ट करते हुए वहाँ बतलाया है
सद्भूतेत रमेदाद्व्यवहारः स्याद् द्विधा भिदुपचार | गुण-गुणिनोरमिध्यायामथि सद्भूतो विपर्ययादितरः ||१०४ ||
सद्भुत और असद्भूतके भेदसे व्यवहार दो प्रकारका है । गुणगुणीमें अभेद होनेपर भी भेदरूप उपचार करना सद्भूत व्यवहार है । तथा दो द्रव्यों में भेद होने पर भी अभेदरूप उपचार करना असद्भूत व्यवहार है ||१०४||
सद्भूतः शुद्धेतरभेदाद् द्वेषा तु चेतनस्य गुणाः । hamararta इति शुद्धोऽनुपचारित संज्ञोऽसौ ॥ १०५ ॥
शुद्ध सद्भूत व्यवहार और अशुद्ध सद्भूत व्यवहारके भेदसेसद्भूत व्यवहार दो प्रकारका है । केवलबोधादिक अर्थात् असहाय ज्ञान दर्शनादि जीवके हैं ऐसा स्वीकार करना शुद्ध सद्भूत व्यवहार है । इसे अनुपचरित सद्भुत व्यवहार भी कहते है || १०५ ॥
मत्यादिविभावगुणाश्चित इत्युपचरितकः स चाशुद्धः । देहो मदीय इत्यनुपचरितसंज्ञस्त्वसद्भूत ॥१०६ ॥ मतिज्ञान आदिक जीवके गुण हैं ऐसा स्वीकार करना अशुद्ध सद्भूत व्यवहार है । इसीका दूसरा नाम उपचरित सद्भूत व्यवहार है ।