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निश्चय-व्यवहारमीमांसा यहाँ 'शुद्ध-बुद्धकस्वभावाः' पदका अर्थ करते हुए लिखा है
शुद्ध-बुकस्वभावाः शुद्धो रागाविरहितो बुद्धो ज्ञानपरिणतः एकः केवलः स्वभावो येषां ते।
शुद्ध पदका अर्थ है कि निश्चयसे सभी जीव रागादिरहित हैं और बुद्धपदका अर्थ है कि सभी जीव ज्ञानपरिणत हैं। निश्चयसे देखा जाय तो उनका एकमात्र यही स्वभाव है यह एक स्वभावपद देकर स्पष्ट किया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अध्यात्ममें निश्चयनयका जो स्वरूप दृष्टिगोचर होता है दूसरे शब्दोंमें उसे ही यहां स्वीकार किया गया है। विचार कर देखा जाय तो सभी अनुयोगोंकी रचनाका मुख्य प्रयोजन . वीतरागता ही है। शुद्ध-बुद्व एक स्वभाव आत्माकी प्राप्ति तभी सम्भव है जब यह आत्मा अपने त्रिकाली स्वभावके सन्मुख हो उसमें तन्मय होता है। इससे हम जानते हैं कि ज्ञानोके बाह्यमें जो मन-वचनकायकी प्रवृत्ति देखी जाती है वह स्वर्गादिककी कामना या ऐहिक सुखकी कामनासे नहीं होती है। बाह्य प्रवृत्तिके मूलमें रागकी मुख्यता है, इसलिये उसको निमित्तकर पुण्यबन्ध और उसके फलस्वरूप स्वर्गादिककी प्राप्ति होनेपर भो वह उसकी अभिलाषासे सर्वथा मुक्त रहता है। और इसीलिये आगममें सम्यग्दृष्टिके लक्षणमें उसे निदानसे मुक्त स्वीकार किया गया है।
यद्यपि चरणानुयोगमें व्रतोके अन्य दो शल्योंके समान उसे निदान शल्यसे रहित ही बतलाया गया है। सम्यग्दृष्टिके विषयमें वहाँ कुछ भो नही कहा गया है। परन्तु यह विवक्षाविशेषके कारण ही ऐसा कहा गया समझना चाहिये । बात यह है कि चरणानुयोग मुख्यतया ज्ञानी गृहस्थों और मुनियोंकी बाह्य प्रवृत्तिको लक्ष्यमे रखकर ही लिपिबद्ध हआ है, इसलिये उसमें व्रतोंकी मुख्यतासे निदान करनेका निषेध किया गया है । वस्तुतः जो सम्यग्दृष्टि होता है, उसके पर वस्तुके ग्रहण-स्यागमें सहज ही उदासीनता बर्तती रहती है। ज्ञानधाराका ऐसा ही कुछ माहात्म्य है जिससे वह ऐसी वासनासे सहज ही मुक्त रहता है । इसलिये जो सम्यग्दृष्टि है वह न तो ऐहिक काममासे देवभक्ति आदि कार्यमें प्रवृत्त होता है और न ही परलोकमें मुझे स्वर्गादि की प्राप्ति होओ ऐसी कामनाके साथ देवभक्ति, तीर्थ वन्दना, दान आदि कार्यों में प्रवृत्त होता है।