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निश्चय-अयवहारमीमांसा . ३११ व्यवहारः प्रतिवेभ्यस्तस्य प्रतिषकवच परमार्थः । . व्यवहारप्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्व वाच्यः स्यात् ।। १-५२८॥ व्यवहारः यथा स्यात् सद् द्रव्य. मानवांश्च बीवो वा।'
नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपतिः ।। १-५९९ ।। सद्भूत और असद्भूत जितना भी व्यवहार है वह प्रतिषेध्य है अर्थात् निश्चयनय परिणत आत्माके अनुभवमें उसका स्वयं निषेध हो जाता है अथवा ध्येयकी दृष्टिसे भी वह प्रतिषेध्य है-व्यवहारनयका विषय ध्येयरूपसे स्वीकार करने योग्य नहीं है, अत: निश्चयनय स्वरूपसे उसका प्रतिषेध करनेवाला है। इसलिये व्यवहारनयका प्रतिषेधरूप जो भी पदार्थ है वही निश्चयनयका वाच्य है ।।१-५८।। जैसे यह कहना कि 'द्रव्य सत् है या जीव ज्ञानवान है' यह व्यवहारनय है और इसका प्रतिषेध करनेवाला 'न' यह निश्चयनय है । यह सब नयोंका राजा है ।।१-५९९।।
यहाँ व्यवहारनयका जितना भी वाच्य (विषय ) है वह निश्चयनयका वाच्य नही हे, मात्र इसलिये निश्चयनयका वाच्य 'न' कहा गया है तथा इन दोनों नयोमे जो प्रतिषेध्य और प्रतिषेधकपना स्वीकर किया गया है उसका भी कारण यही है। इसका अर्थ यह नही कि निश्चयनयस्वरूप अनुभूतिको दशामे 'मै व्यवहारनय स्वरूप नही हूँ' ऐसा अनुभव होता है, क्योंकि आत्माका अनुभव तो विधिरूपसे ही होता है, परन्तु वह अनुभव व्यवहारनयस्वरूप नहीं है तथा आत्मा परमार्थसे व्यवहारनय स्वरूप नहीं है ऐसे निर्णयपूर्वक विधिरूपसे ही आत्मा अनुभूत होता है । यही कारण है कि श्री समयसारमें विधिरूपसे आत्माका ख्यापन करने. के लिये सर्बम्र व्यवहारनयको प्रतिषेध्य बतलाया गया हैं। इसके लिये मुख्लरूपसे गाथा १४-१५ द्रष्टव्य है। इसी तथ्यको नयचक्रमें 'गेव्हा वव्यसहावं' इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया गया है। इसका विशेष स्पष्टीकरण इसी अध्यायमें हम पहले कर ही आये है।
बात यह है कि संसार और मुक्ति ये परस्पर विरुद्ध भाव है । संसाररूप आत्माको अनुभवने पर जोव मुक्त नहीं हो सकता और मुक्ति आदि व्यावहारिक पदोंसे अत्यन्त भिन्न आत्माके अनुभवनेपर संसारका अन्त हुए बिना रहता नहीं। दूसरी बात यह है कि जितना भी व्यवहारनय है वह सब विकल्परूप है । वस्तुतः न तो वस्तुमें किसी भी प्रकारके उपचरित धर्मका अस्तित्व है और न ही गुणादिको अपेक्षा वह खण्ड खण्डकप ही है । कार्यादिककी दृष्टिसे या वस्तुस्वरूपको समझनेको दृष्टिले विकल्परूप