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निश्चय व्यवहारमीमांसा
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शंका--जो बागन्तुक होता है वह कारणपूर्वक होनेसे अनादि नहीं हो सकता ?
समाधान-बीज वृक्षकी सन्तानकी तरह उसे अनादि स्वीकार किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो इसमें कारणकी मुख्यता है और न ही कालकी मुख्यता है । किसीने ऐसा पहले प्रारम्भ किया हो ऐसा नहीं है, इसलिये सन्तानकी दृष्टिसे अनादिता अकृत्रिम है । किन्तु प्रत्येक पर्यायकी दृष्टिसे वह सकारण कही जाती है । अनादि काल से स्वयं ऐसा ही बनाव बन रहा है । इसी तथ्यको दूसरे शब्दों में व्यक्त करते हुए जयधवला पु० १, पृ० ५५ मे कहा भी है
refमतादो कम्मसताणे ण वेच्छिज्जदि ति ण वो जुत्तं, अर्काट्टमस्स वि बीजकुर संताणस्सेव वोच्छेदुपलभादो ।
अकृत्रिम होनेसे कर्मसन्तान व्युच्छिन्न नहीं होती ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योकि अकृत्रिम होते हुए भी बीज और अंकुरकी सन्तानका जैसे विच्छेद पाया जाता है वैसे कर्मसन्तान अकृत्रिम होनेपर भी उसका विच्छेद हो जाता है ।
शंका - सविकल्प निश्चयनयमे रागकी चरितार्थता होनेसे उसे स्वाश्रित कहना ठीक नहीं है, अन्यथा सविकल्प दशामे भी सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्ति होने लगेगी ?
समाधान - सविकल्प निश्चयनयको जो स्वाश्रित कहा गया है वह ध्येय की अपेक्षा ही कहा गया है, अन्यथा उसे निश्चयनय कहना नहीं बन सकता है । विकल्पको अपेक्षा विचार किया जाय तो वह रागसे अनुरंजित उपयोग परिणाम ही है । देखो, प्रकृतमें उपयोग क्षयोपशम भाव है, इसलिये यह उसकी स्वतन्त्रता है कि वह स्वतन्त्ररूपसे अपने विषयको जाने तथा अनुभबे अन्यथा रागके बुद्धिपूर्वक राग और अबुद्धिपूर्वक राग ये भेद नहीं बन सकते । इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर जयधवला पु० १ पृ० ५ पर एक गाथा द्वारा यह तथ्य स्पष्ट किया गया है
rasया बंधयरा उपशम खय-मिस्सया य मोक्खयरा । भाबो दु परिणामिओ करणोभयव ज्जिओ होइ ॥
refusभावोंसे कर्मबन्ध होता है, मोपशमिक, क्षायिक और