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________________ ३०८ जैनतत्त्वमीमांसा है कि इन नौ पदार्थोंमें व्याप्त एक ही जीव तत्त्व है और उसका जानना अर्थात् अनुभवना सम्यग्दर्शन है । आगममें ओ इन्हें भूतार्थ कहा गया है सो वह सद्भूत-असद्भूत व्यवहारनयसे ही कहा गया है। शंका--नव पदार्थोंमें अजीव पदसे तो पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंका ग्रहण होता है। उनमें व्याप्त जीव पदार्थको मानना कैसे सम्भव है ? समाधान-अज्ञानी जीवके परपदार्थों में एकत्वबुद्धि और इष्टानिष्ट बुद्धि देखी जाती है। अज्ञान और राग-द्वषसे तन्मय होनेके कारण वह इन्हें अपना स्वरूप मानता आ रहा है । वह इनकी हानिमें अपनी हानि और इनकी वृद्धि में अपनी वृद्धि मानता रहता है। विचारकर देखा जाय तो वास्तवमें उसका यह भाव ही अजीव पदार्थ है और इसीलिये ही जीव-अजीव आदि नव पदार्थों में व्याप्त जीव तत्त्व कहा गया है। __ शंका--यदि यह बात है तो अजीव पदार्थमें पुद्गलादिकका ग्रहण होता है या नहीं? ___ समाधान-ऐसी मान्यतामें पुद्गलादिकका ग्रहण तो सुतरा हो जाता है, क्योंकि उनको लक्ष्य कर ही ऐसे भाव होते हैं। __ शंका--पुद्गलादिक द्रव्य लोकमे सदा काल अवस्थित रहते हैं इसलिये जीवके ये भाव सदाकाल होते रहते है ऐसा मानने में क्या आपत्ति है ? समाधान-नही, उनका सद्भाव इन भावोंके होनेका मुख्य कारण नहीं है, क्योंकि जो अर्थहीन है उसके भो अर्थसम्बन्धी लालसा देखी जाती है । मुख्यतः यह स्वयं जीवका अपराध है। इस अपराधवृत्तिके कारण ही वह ऐसे भाव करता है। हाँ जिन पदार्थोंको लक्ष्यकर करता है उनमें उन भावोंके होनेमे निमित्त व्यवहार हो जाता है। शंका--जीवकी यह अपराधवृत्ति कबसे देखी जाती है ? समाधान-अनादि कालसे। शका-तब तो इस वृत्तिको जीवका स्वभाव मान लेना चाहिए ? समाधान-नहीं, क्योंकि जो अनादि हो वह वस्तुका स्वभाव होना ही चाहिये ऐसा नियम नही है। कारण कि स्वभाव अनादि-अनन्त होता है, अतः स्वत सिद्ध उसे अपना अनुभव करने पर अपराधवृत्ति सुतरां टल जाती है । इसीलिये आगममें पराश्रितभावको आगन्तुक भाव भी कहा गया है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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