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क्रम-निमितपयिमीमांसा तीनों कालोसम्बन्धी नयों और उपनयोंके विषयभूत अनेक धर्मों। (पर्यायों) के तादात्म्यसम्बन्धका नाम द्रव्य है। वह सामान्यकी अपेक्षा एक है और पर्यायोंकी अपेक्षा अनेक है ॥१०॥
यहाँ भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों काल लिये गये हैं। इससे सिद्ध है कि जितने कालके समय उतनी ही प्रत्येक द्रव्यको पर्यायें । यतः वे पर्यायें द्रव्यके साथ तादात्म्यरूपसे अवस्थित हैं, इसलिये जिस पर्यायके उदयका जो काल उसी समय उसका उत्पाद होता है, इस प्रकार एक पर्यायका स्थान दूसरी पर्याय नहीं ले सकती यह सुतरां सिद्ध हो जाता है । इसी तथ्यका समर्थन गोम्मटसार जीवकाण्डसे भो होता है।
इस विषयके पोषक अन्य उदाहरणोंकी बात छोड़कर यदि हम कार्मणवर्गणाओंके कर्मरूपसे परिणमनकी जो प्रक्रिया है और कर्मरूप होनेके बाद उसकी जो विविध अवस्थाएं होती हैं उनपर ध्यान दें तो प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है यह तत्त्व अनायास समझमें आ जाता है । साधारण नियम यह है कि प्रारम्भके गुणस्थानोंमें आयुबन्धके समय आठ कर्मोंका और अन्य कालमें सात कोंका प्रति समय बन्ध होता है। यहाँ विचार यह करना है कि कर्मबन्ध होनेके पहले सब कार्मणवर्गणाएं एक प्रकारकी होती हैं या सब कर्मोंकी अलग-अलग वर्गणाएं होती हैं ? साथ ही यह भी देखना है कि कार्मणवर्गणाएँ ही कर्मरूप क्यों परिणत होती हैं ? अन्य वगणाऐं बाह्य निमित्तोंके द्वारा कर्मरूप परिणत क्यों नहीं हो जाती? यद्यपि ये प्रश्न थोड़े जटिल तो प्रतीत होते हैं परन्तु शास्त्रीय व्यवस्थाओ पर ध्यान देनेसे इनका समाधान हो जाता है। शास्त्रोंमें बतलाया है कि योगके निमित्तसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है। अब थोड़ा इस कथनपर विचार कीजिए कि क्या योग सामान्यसे कार्मणवर्गणाओके ग्रहणमें बाह्य निमित्त होकर ज्ञानाधरणादिरूपसे उनके विभागमें भी बाह्य निमित्त होता है या ज्ञानावरणादिरूपसे जो कर्मवर्गणाऐं पहलेसे अवस्थित हैं उनके ग्रहण करने में बाह्य निमित्त होता है ? इनमेंसे पहली बात तो मान्य हो नहीं सकती, क्योंकि कर्मवर्गणाओंमें ज्ञानावरणादिरूप स्वभावके पैदा करने में योगको बाह्य निमितता नहीं है। जो जिस रूपमें हैं उनका उसी रूपमें ग्रहण हो इसमें ही योगकी बाह्य निमित्तता है । अब देखना यह है कि क्या बन्ध होनेके पहले हो कर्मवर्गणाऐं ज्ञानावरणादिरूपसे अवस्थित रहती हैं ? यद्यपि पूर्वोक्त कथनसे इस प्रश्नका समाधान हो जाता है, क्योंकि योग जब भानावर