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Nawara
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जैनतत्वमीमासा यहाँ पर स्वामी समन्तभद्रने और आचार्य विद्यानन्दने प्रत्येक कार्यकी द्रव्यमें जो कथंचित् सत्ता स्वीकार की है सो उसका यही तात्पर्य है कि प्रत्येक कार्य द्रव्यमें शक्तिरूपसे अवस्थित रहता हैं। यदि वह उसमें शक्तिरूपसे अवस्थित न हो तो उसका उत्पाद ऐसे ही नहीं बनता जैसे आकाशकुसुमका उत्पाद नहीं बनता। इतना ही नहीं, जो निश्चय उपादानका नियम है कि इससे यही कार्य उत्पन्न होता है, उसके बिना यह नियम भी नही बन सकता है । तब तो मिट्रीसे वस्त्रकी और जीवसे अजीवकी भी उत्पत्ति हो जानी चाहिए। और यदि ऐसा होने लगे तो इससे यही कार्य होगा ऐसा समाश्वास करना कठिन हो जायगा । अतएव द्रव्यमे शक्तिरूपसे जो कार्य विद्यमान है वही स्वकाल आनेपर कार्यरूपसे परिणत होता है ऐसा निश्चय करका चाहिये ।
कारणमें कार्यकी सत्ताको तो साख्यदर्शन भी मानता है। किन्तु वह प्रकृतिको सर्वथा नित्य और उसमें कार्यकी सत्ताको सर्वथा सत् मानता है। इसलिये उसने कार्यका उत्पाद और व्यय स्वीकार न कर उसका आविर्भाव और तिरोभाव माना है । जैनदर्शनका सांख्यदर्शनसे यदि कोई मतभेद है तो वह इसी बातमें है कि वह कारणको सर्वथा नित्य मानता है जैनदर्शन कथंचित् नित्य मानता है। वह कारणमें कार्यका सर्वथा सत्त्व स्वीकार करता है, जैनदर्शन कथचित् सत्त्व स्वीकार करता है। वह कार्यका आविर्भाव-तिरोभाव मानता है, जैनदर्शन कार्यका उत्पादव्यय स्वीकार करता है। कारणमें यह कार्य सर्वथा है नहीं। उसके पूर्व उसका सर्वथा प्रागभाव है । यह मत नैयायिकदर्शनका है किन्तु जैनदर्शन इसके भी विरुद्ध है । वह कारणमे कार्यका कथंचित् प्रागभाव मानता है। यथा-द्रव्यरूपसे कारणमें कार्य है और पर्यायरूपसे नहीं। वह न तो सर्वथा सांख्यदर्शनका ही अनुसरण करता है और न सर्वथा नैयायिक| दर्शनका ही। और यह ठीक भी है, क्योकि द्रव्य कथचित् नित्यानित्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वभाव प्रतीतिमे आता है। साथ ही उसमें कार्यकी कारणरूपसे सत्ता होनेसे जो जिस कार्यका स्वकाल होता है उस कालमे उसका जन्म होता है।
पर्यायें क्रमनियमित ही होती है इस तथ्यका समर्थन आप्तमीमांसाके इस वचनसे भी होता है
नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभाज्भावसम्बन्धः द्रव्यमेकमनेकधा ॥१०॥