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जैनतत्त्वमीमांसा बद्धस्पृष्टता भी भूतार्थ है। आत्मख्याति टीकामे आचार्य अमृतचन्द्रदेवने इसे स्वीकार भी किया है और भूतार्थ तथा परमार्थ एकार्थवाची वचन हैं, इसलिये वस्तुको परमार्थसे बद्धस्पष्ट मानना चाहिये। फिर क्या कारण है कि आप बद्धस्पृष्टताको परमार्थ स्वरूप होनेका निषेध करते हैं ?
समाधान-मूलाचार चरणानुयोगका मूल ग्रन्थ है। आचार्य वीरसेनने तो इसकी महत्ताको समझ कर इसे आचारांग शब्दसे ही सम्बोधित किया है। इसमें 'सम्वे संजोगलक्खणा' पदमें आये हुए संयोग शब्दका अर्थ करते हुए लिखा है
अनात्मनीनस्य आत्मभाव मंयोग ॥ १-४८ ॥ जो अपना नहीं है उसमे आत्मभावका होना इसका नाम संयोग है।
इससे विदित होता है कि प्रकृतमें बद्धस्पृष्ट पदसे अज्ञान राग-द्वेषरूप पर्यायको ही आचार्य अमृतचन्द्रदेव भूतार्थ कह रहे हैं। बाह्य निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको लक्ष्यकर आचार्य जयसेन प्रवचनसार गाथा २६५ की टीकामें लिखते हैं____ बाह्यपञ्चेन्द्रियविषयभूते वस्तुनि सति अज्ञानभावात् रागाद्यध्यवसानं भवति तस्मादध्यवसानाद् बन्धो भवतीति पारम्पर्येण वस्तु बन्धकारणं भवति न च साक्षात् ।
पञ्चेन्द्रियोके वाह्य विषयभूत वस्तुके होनेपर अज्ञानभावसे रागादि अध्यवसान होता है और उस अध्यवसानसे बन्ध होता है, इसलिये बाह्य वस्तु परम्परासे बन्धका कारण है, साक्षात् नही।
यह उद्धरण इतना स्पष्ट है जिससे हम जानते है कि साक्षात् बद्धस्पृष्टता तो अज्ञान, राग-द्वेषरूप ही है। जीवद्रव्य कर्म और शरीरादि नोकर्मसे बद्ध स्पष्ट है यह कहना ऐसा ही है कि जैसे किसीका यह कहना कि हमें अपने कुटुम्बीजनोंने जकडकर इतना बाँध रखा है कि हमें इस जन्ममें तो उनसे छुटकारा पाना सम्भव ही नहीं। वस्तुतः विचारकर देखा जाय तो यहाँ उसका अज्ञानमूलक रागभाव ही इसका कारण है, कुटुम्बी जन नहीं। इसी प्रकार प्रकृतमें भी जीवकी बद्धस्पृष्टत्ता अज्ञानभावरूप ही है, कर्म और नोकर्मरूप नहीं । उनसे जीव बँधा है यह कथन मात्र असद्भूत व्यवहारनयसे ही किया गया है। _ शंका-तो फिर भेदविज्ञानके होनेपर जीवको अज्ञानमूलक सभी पर्यायोंसे छुटकारा मिल जाना चाहिये ?
समाधान-छुटकारा अवश्य मिल जाता है। अन्तर इतना ही है कि