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जैनतत्त्वमीमांसा श्रुतज्ञान ही कहा जायगा। हम उन्हे इससे और अधिक उपालम्भ ही क्या दे सकते हैं। जो यह कहा जाता है कि यह बात उपादान स्वरूप द्रव्यके अवस्थित रहनेपर भी यदि कार्यके अनुकूल बाह्य-सामग्री नहीं मिलती या प्रतिकूल सामग्री उपस्थित रहती है तो कार्य नहीं होता सो इसके समाधानके लिये हम तत्त्वार्थ श्लोकवातिकका एक उद्धरण उपस्थित कर देना पर्याप्त समझते है। सम्यग्दर्शनके होनेपर विशिष्ट सभ्यज्ञानका लाभ होता भी है और नहीं भी होता है इसी प्रसंगमें यह वचन आया है। नियम यह है कि उत्तरवर्ती विशिष्ट सम्यग्ज्ञानका लाभ होनेपर सम्यग्दर्शनका लाभ नियत है, पर सम्यग्दर्शनका लाभ होनेपर विशिष्ट सम्यग्ज्ञानका नियमसे लाभ होना ही चाहिये ऐसा कोई एकान्त नही है। इसी तथ्यको आचार्य इन शब्दों द्वारा व्यक्त करते है
तत एव उपादानस्य लाभे नोत्तरस्य नियतो लाभः, कारणानामवश्य कार्यवत्वाभावात् ।
इसीलिये उपादानका लाभ होनेपर उत्तरका लाभ नियत नही है, क्योंकि कारण अवश्य ही कार्यवाले होते हैं यह नहीं है।
इसपर प्रश्न हुआ कि यदि समर्थ कारण हो तब कार्य होता है या नही। इसके उत्तरमे आचार्य कहते हैं कि पूर्वोक्त कथन समर्थ कारणकी अविवक्षाको ध्यानमे रखकर किया है। समर्थकारणकी विवक्षामे तो पूर्वका लाभ होनेपर उत्तरका लाभ भजनीय नही है । यथा___ समर्थस्य कारणस्य कार्यवत्त्वमेवेति चेत् ? न, तस्येहाविवक्षितत्वात् । तद्विवक्षाया तु पूर्वम्य लाभे नोत्तर भजनीयमुच्यते, स्वयमविरोधात् ।। । इस प्रकार इस कथनसे यह निश्चित होता है कि अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य समर्थ उपादान कारण है, इसलिये वह अपने नियतकार्यको नियमसे उत्पन्न करता है और इसीलिये आचार्य विद्यानन्दने उसे निश्चय उपादानकी संज्ञा दी है। इतना ही नही, इससे यह भी । सिद्ध होता है कि जब समर्थ उपादान अपने नियत कार्यको जन्म देता है तब उसके अनुकूल ही बाह्य सामग्री उपस्थित रहती है, वहाँ उसके प्रतिकूल बाह्य सामग्रीका सर्वथा अभाव रहता है। परीक्षामुखके सूत्रका भी यही आशय है।
(५) कुछ महानुभाव कर्म और आत्मामें संश्लेष सम्बन्ध वास्तविक है इत्यादि कथन द्वारा उनके सम्बन्धको वास्तविक मानकर कर्मको