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क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
२४३ है उसके बाद जब जीव इतने कालके बाद नियमसे मुक्त हो जाता है। ऐसी अवस्थामें जब काल नियम बन जाता है तब अनियम कहाँ रहा। इस प्रकार वे महाशय अपने कषन द्वारा कालनियम स्वीकार करके भी कथनमें मात्र उसका निषेध करते हैं। दूसरे सम्यग्दर्शन होते समय अनन्त संसारका छेद हो जाता है, मागममे जो यह कहा गया है तो इसका इतना ही अभिप्राय है कि अनन्त संसारके कारण जो मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय थे उनका छेद हो गया है। यहाँ कारणमें कार्यका उपचार कर यह वचन कहा गया है।
(४) वे महाशय बाह्य निमित्तमें कार्यकृत स्वभाव मानते हैं अतः अव्यवहित पूर्वपर्यायमें कारणता स्वीकार करनेके लिये तैयार नहीं हैं। इसपर हमारा कहना यह है कि यदि यह बात है तो उपादानके लक्षणमें 'अव्यवहित पर्व पर्याय' यह विशेषण नहीं लगाया जाना चाहिये था। यत. यह विशेषण लगाया गया है, इससे सिद्ध है कि आचार्योंने अव्यवहित पूर्वपर्याय युक्त द्रव्यमें निश्चित कारणता स्वीकार करनेके लिये ही लक्षणमें पहले यह विशेषण लगाया है। इसी तथ्यके समर्थनमे आचार्य विद्यानन्दि अष्टसहस्री पृ० १०० में लिखते है
ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि प्रागभावस्तावत्कर्यस्योपादानपरिणाम एव पूर्वानन्तरात्मा ।
ऋजुसूत्रनयको मुख्यतासे तो अनन्तरपूर्व पर्यायरूप उपादान-परिणाम ही कार्यका प्रागभाव है।
देखो दो समयमें प्रागभाव और प्रध्वंसाभावकी व्यवस्था इस आधारपर बनती है कि जिस कार्यके अभावसे अगले समयका कार्य । हुआ वह प्रध्वंसाभाव है और उपादानरूप द्रव्य प्रागभाव है। इसी। तथ्यको पृ० १०१ में स्वीकार करते हुए वे लिखते हैं
प्रागभाव-प्रध्वंसयोरुपादानोपादेयरूपतोपगमात्प्रागभावोपमर्दनेन प्रध्वंसस्यास्मलाभात् ।
प्रागभाव और प्रध्वंसाभावमें क्रमसे उपादान और उपादेयरूपता स्वीकार को गई है. इसलिये उपादानके उपमर्दनद्वारा प्रध्वंसाभावकी प्राप्ति होती है यह निश्चित होता है।
ये आगम वचन हैं इनका अपलापकर-अव्यवहित पूर्वपर्यायमें कारणताका निषेध करना केवल उन महाशयोंका मिथ्यात्वसे दूषित मिथ्या
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