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क्रम नियमितपर्यायमीमांसा
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की योग्यता रहनेपर ही विषभक्षण आदिको निमित्तकर उन निषेकोंका अपकर्षण होता है या बिना योग्यताके ही विषभक्षण आदिको निमित्तकर उन निषेकोंका अपकर्षण हो जाता है । योग्यताके अभाव में भी कोई कार्य होता है ऐसा तो वे महाशय भी स्वीकार नहीं करेंगे, अन्यथा जौ के बीजसे ही शालिधान्यकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी, अभव्य भी रत्नत्रको उत्पन्न कर मोक्षके पात्र हो जायेंगे। कार्यके अनुरूप योग्यताके स्वीकार करने पर भी उसका परिपाक काल आने पर ही वह फलित होती है यह भी मानना पड़ेगा। इससे सिद्ध हुआ कि जिन जीवोंकी भुज्यमान आयुके अपकर्षणके योग्य कालकी उपलब्धि जब प्राप्त होती है उसी समय विषभक्षण आदिको निमित्त कर उसका अपकर्षण होता हैं। सो भी वह आगामी भवसम्बन्धी आयुबन्धके पूर्व तक ही, उसके बाद नहीं ।
(७) अतएव लोक में जिसे अकालमरण या कदलीघात कहा जाता है, शास्त्रीय दृष्टिसे उसका इतना ही अर्थ है कि यह आयु अपकर्षणके योग्य थी, इसलिये विषभक्षण आदिको निमित्त कर इसका अपकर्षण हो गया और तदनन्तर पर भवसम्बन्धी आयुका बन्ध होकर आबाधा काल प्रमाण अपनी भुज्यमान आयुके समाप्त होने पर उसका अन्त हो गया । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि भुज्यमान आयुके अपकर्षण होनेके तत्काल बाद परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध हो सकता है या कालान्तरमें परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध हो सकता है। ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है कि भुज्यमान आयुके अपकर्षणके तत्काल बाद ही परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होना ही चाहिये । साथ ही इस प्रकारसे आयुबन्धके समय भुज्यमान आयु कितनी शेष रहती है इस विषय में भी कोई एक नियम नहीं है । कमसे कम एक अन्तर्मुहूर्त भी शेष रह सकती है और अधिक से अधिक एक पूर्वकोटिके कुछ कम एक त्रिभागप्रमाण भी शेष रह सकती है ।
इस प्रकार अनपवर्त्य और अपवर्त्य आयुका क्या तात्पर्य है यह कर्मशास्त्र के अनुसार स्पष्ट होनेपर भी यदि वे महाशय अपनी जिदका परित्याग किये बिना अपनी कल्पनाके अनुसार अकालमरणका अर्थ करने में ही अपनी सफलता मानते हैं तो उन्हें अकालमरणके समान अकाल जन्म भी मानना पड़ेगा, क्योंकि मरण कहो चाहे पूर्व पर्यायका व्यय कहो दोनोंका अर्थ एक ही है तथा व्यय और उत्पादमें मात्र लाभका
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