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जनतस्वमीमांसा जैसे बाह्य निमित्त मिलते हैं तब किसी भी जीवका मरण हो जाता है। उसके मरणका उपादानकी अपेक्षा कोई नियत समय नहीं हो सकता। उपादानमें कौन कार्य हो यह बाह्य निमित्तोंके मिलने और न मिलने पर निर्भर है। यह उन महाशयोंका कथन है। उनके इस कथनको ध्यानमें रखकर प्रकृतमें अकाल मरणके सम्बन्धमें ही विचार करना है।
(१) कर्मशास्त्रका नियम है कि आयुबन्धके समय भुज्यमान आयु जितनी शेष रहती है उसका अपवर्तनके बिना पूरा भोग होकर ही जीवका मरण होता है। इसके लिये देखो धवला पु० ६ उत्कृष्ट स्थिति चूलिका सू. २४ और २८ तथा जधन्य स्थिति चुलिका सू० २९ और ३३ ।
(२) इन चारों सूत्रोंमें यह तथ्य स्पष्ट किया गया है कि आयबन्धके समय जितनी भुज्यमान आयु शेष रहती है उसका न तो अपकर्षण ही सम्भव है और न उत्कर्षण ही सम्भव है । वह सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित है। विषभक्षण आदि बाह्य निमित्तोंके मिलने पर भी उक्त भुज्यमान आयुका अपकर्षण होकर ह्रास नहीं होता।
(३) यह कहना भी ठीक नहीं है कि परभवसम्बन्धी आयुबन्धके पूर्व भुज्यमान आयुका विषभक्षण आदिके निमित्तसे ह्रास होकर मरण हो जायगा, क्योंकि जब तक परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होकर अबाधारूप भुज्यमान आयुका काल पूरा नहीं होता तब तक मरण नही हो सकता।
(४) इसलिये कर्मशास्त्रके अनुसार यही निश्चित होता है कि जो चरमोत्तम देहवालों आदिसे रहित कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यश्च है उनकी भुज्यमान आयुका अपकर्षण परभवसम्बन्धी आयुबन्धके पूर्व तक ही सम्भव है, आयुबन्धके कालसे लेकर नहीं।
(५) तत्त्वार्थसूत्रकारने कालमरण और अकालमरणका उल्लेख न कर मात्र इतना कहा है कि उपपाद जन्मवाले, चरमोत्तर शरीरवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंकी आय अनपवर्त्य होती है अर्थात् अपवर्तन (अपकर्षण) के अयोग्य होती है। इनकी निषेक स्थितियोका अपकर्षण नहीं होता। इससे यह फलित होता है कि शेष जीवोंकी आयुके निषेकोंका अपकर्षण होना सम्भव है।
(६) तब यह प्रश्न होता है कि भुज्यमान वायुके निषकोंमें अपकर्षण