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क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
२३५ करना है। मात्र जीवोंकी अपेक्षा विचार करना है। प्रत्येक जीव ज्ञानदर्शन स्वभाव है, राग, द्वेष, मोहस्वभाव नहीं। यतः संसारी जीव अनादि कालसे अपने ज्ञान-दर्शन स्वभावको भूलकर पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें इष्टानिष्ट बुद्धिके साथ शरीरादिमें ही एकत्वबुद्धि करता आ रहा है। परिणामस्वरूप 'मैं ज्ञान-दर्शन स्वभाव आत्मा हूँ' इस तथ्यको भूला हुआ है। यह वस्तुस्थिति है। इससे यह तथ्य फलित हुआ कि परपदार्थोकी
ओर झुकावकी भूमिकामें जोवकी जो-जो अवस्था या भाव होते हैं वे विभाव भाव हैं और अपने शान-दर्शन स्वभावको निजरूपसे लक्ष्यमें लेनेपर जीवकी जो-जो अवस्था या भाव प्रगट होते हैं वे सब स्वभाव भाव है। इसी तथ्यको जानकर ही आचार्य अमृतचन्द्रदेव कलश काव्य में भव्य जनोंको सम्बोधित करनेके अभिप्रायसे कहते हैं
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ता. । सुप्ता यस्मिन्नपदमपद तद्धि बुध्यध्वमन्धाः ॥ एततेत पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः ।
शुद्ध. शुद्ध. स्वरसभरत. स्थायिभावत्वमेति ।। १३६ ।। हे अन्ध प्राणियो! अनादि संसारसे लेकर ये रागी जीव प्रत्येक पर्यायमें सदा मत्त वर्तते हुए जिस अवस्थामे सो रहे है वह अवस्था तुम्हारा स्वरूप नहीं है, तुम्हारा स्वरूप नहीं है, इसे तुम समझो। अतः अपने निज स्वरूपको उपलब्ध करनेके लिए इस ओर आओ, इस ओर आओ, तुम्हारा स्वरूप यह है-यह है जहाँ अतिशद्ध चेतन्यधात निज रससे ठसाठस भरी होनेके कारण स्थायीपनेको प्राप्त है।
जिस तथ्यको आचार्य कुन्दकुन्ददेवने समयसार गाथा २०१-२०२में स्पष्ट किया है, इस कलश काव्य द्वारा उसी ओर इंगित किया गया है। इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस जीवके विभावरूप परिणमनका यथार्थ कारण स्वयं उसका अपराध है, परपदार्थ नहीं। कर्मादि परपदार्थों में तो निमित्तता तब स्वीकारी जाती है जब यह जीव स्वभाव, ५ को भूलकर उनकी ओर झुकाववाला होता है। तभी उनमें कर्ता निमित्तपनेका तो नहीं, कारण निमित्तपनेका व्यवहार किया जाता है | देखो समयसार गाथा ६५-६६ ।
इसलिये जैन दर्शनके अनुसार यदि देखा जाय तो निमित्तपनेकी अपेक्षा अन्य द्रव्योमें अन्य द्रव्योके कार्योको सम्पादित करनेका कोई गुण न होनेसे सभी समान है, वह मात्र असद्भूत व्यवहार हैं। इस विषयमें विशेष स्पष्टीकरण हम पहले ही कर आये है ।