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जैनसत्त्वमीमांसा तथा स्वभाव पर्यायोंमें कर्मोपाधिरहित सभी अर्थपर्यायों और व्यञ्जनपर्यायोंका ग्रहण हो जाता है। प्रकृतमें जो विभावपर्यायें हैं वे ही स्वपर. सापेक्ष पर्यायें कहलाती हैं और जो स्वभाव पर्यायें हैं वे ही निरपेक्ष पर्यायें कहलाती हैं। यद्यपि निरपेक्ष पर्यायोंको सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू०७ में स्वप्रत्यय कहा गया है, पर जब अपेक्षाका अर्थ विकल्प किया जाता है तब स्वभाव पर्यायोंकी उत्पत्ति और अनुभवकी दशामे जीव विकल्परहित रहते हैं यह ध्वनित करनेके लिये ही आचार्यने स्वभाव पर्यायोंको मात्र निरपेक्ष कहा है। उनके पीछे स्व और पर ऐसा कोई विशेषण नहीं लगाया है। तथा जब कर्मोपाधिसे रहितको विवक्षा होती है तब वे ही स्वप्रत्यय या स्वसापेक्ष पर्याये भी कहलाती है। नयविभागगहन है। कब कौन नयसे कौन बात कही गई है यह समझना उसीके लिये सम्भव है जो उसमें पारंगत हो।
यह दो पर्यायोकी व्यवस्था है। किन्तु आज-कल इस तथ्यको समझे बिना कई महाशय एक नये मतका प्रचार कर रहे हैं। उनका कहना है कि अगुरुलघुगुणको षड्गुणी हानि-वृद्धिरूप पर्यायें स्वप्रत्यय पर्यायें हैं। उनमें वे कालको भी व्यवहार हेतुरूपसे नहीं स्वीकारते । एक विडम्बना और है और वह यह कि वे अगुरुलघु गुणकी उक्त पर्यायोंको छोड़कर और जितनी भी स्वभाव पर्याये हैं उन्हें स्व-पर सापेक्ष कहते है।
स्वसापेक्ष पर्यायोंके समर्थन में तो वे सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० ७ के उसी कथनको उद्धृत करते है जहाँ पर्यायोंके दो भेद करके उनका स्पष्टीकरण किया गया है और स्वभाव पर्यायोंके स्वपरसापेक्ष कहनेके समर्थनमें वे यह युक्ति देते हैं कि जिन पर्यायोंके होने में परकी सहायता की अपेक्षा होती है वे स्वपरसापेक्ष पर्यायें है। इनमें विभाव और स्वभावरूप सभी पर्याय ली गई हैं।
यह उन महाशयोंका कहना है। अब देखना यह है कि उन्होने आगमके जिन वचनोंको उद्धृत कर यह अभिप्राय व्यक्त किया है वह कहाँ तक ठीक है। एक उद्धरण तो सर्वार्थसिद्धिका है जिसका हम पहले ही उल्लेख कर आये हैं। प्रकरण धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका है। उसकी टीकामें लिखा है
धर्मादानि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत् । क्रियापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष्टः । उत्पादाभावाच्च व्ययाभाव इति । तत. सर्बद्रव्याणामुत्पादादित्रयकल्पनाव्याघात इति ? तन्न, किं कारणम् ? अन्यथोपपत्तेः । क्रिया निमित्तोत्पादाभावेऽप्येषा धर्मादीनामन्यथोत्पाद कल्प्यते । तद्यथा