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जेनतस्वमीमांसा यह एक ऐसा उदाहरण है जिससे हम यह जानते हैं कि प्रत्येक कार्यको उत्पत्तिमे निश्चय उपादानगत योग्यताका स्थान सर्वोपरि है।
(४) एक दूसरा उदाहरण देखिये-कर्मशास्त्रके नियमानुसार जिन ८२ प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिके होता है उनमें मिथ्यात्व प्रकृति भी परिगणित की गई है। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कहा भी है
___ बादाल तु पसत्था विमोहिगुण मुक्कडस्स तिव्वाओ ।
बासीदि अप्पमत्था मिच्छुक्कडसकलिट्ठस्स ॥१६४।। जो ४२ प्रकृतियाँ पण्यरूप कही गई है उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उकृष्ट विशुद्धिरूप परिणामवाले जीवोंके होता है और शेष ८२ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामवाले मिथ्यादृष्टि जीवोके होता है।
यह उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी व्यवस्था है। अब इसकी उदीरणाके विषयमें देखिये । जयधवलामें कहा है
मिच्छत्तस्स उक्कसाणुभाग उदीरणा कस्स ?
मिथ्यात्वको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? यह एक प्रश्न है इसका समाधान करते हुए यतिवृषभ आचार्य लिखते है__ मिच्छाइटिस्म मण्णिस्म मन्वाहि पज्जतीहि पज्जनयस्स उक्सस्सस किलिटुस्स ।
जो मिथ्यादृष्टि संज्ञी जीव सब पर्याप्तियोसे पर्याप्त है और उत्कृष्टसंक्लेश परिणामवाला है उसके मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा होती है।
इन प्रमाणोंसे ज्ञात होता है कि जिस जीवने पहले मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है उसीके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट उदीरणा सम्भव है। और यह ठीक भी है, क्योंकि जिसकी सत्ता हो उसीकी उदोरणा हो सकती है। जिसकी सत्ता हो न हो उसकी उदीरणा कहाँसे होगी।
इस प्रकार इस विधिसे यह नियम बना कि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संश्लेश परिणामवाले मिथ्याष्टिके ही होता है। तभी उसके मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाके कालमें उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम हो सकेंगे । तब प्रश्न होता है कि जो निगोदिया जीव निगोदसे