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क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
રર૭ दशामें राग होता है इसका निवेध नहीं, पर स्वपनेसे रामानुभूतिसे वह सर्वथा मुक्त रहता है यह वस्तुस्थिति है। इस प्रकार इस उदाहरणको दृष्टिपथमें लेकर यदि हम अपने अन्तश्चक्षुको खोलकर देखें तो हमें सर्वत्र कार्यकरणक्षम इस योग्यताका ही साम्राज्य दिखलाई देता है। इसके होनेपर जिसे लोकमें छोटा-से-छोटा बाह्य साधन कहा जाता है वह भी कार्योत्पत्तिका बाह्य साधन बन जाता है और इसके अभावमें जिसे कार्योत्पत्तिका बड़े-से-बड़ा बाह्य साधन कहा जाता है वह भी निष्फल हो जाता है। कार्योत्पत्तिमें निश्चय उपादानगत योग्यताका अपना मौलिक स्थान है। हम ऐसे सैकड़ों उदाहरण बतला सकते हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने निश्चय उपादानकी स्थितिमें पहुंचनेपर कार्य अवश्य होता है, पर उसके अभावमें कितने ही बाह्य साधनोंकी अनुकूलता होनेपर इष्ट कार्यके दर्शन नहीं होते।
(२) शास्त्रोंमें आपने 'तुष-मास' भिन्नकी कथा भी पढ़ी होगी। वह प्रतिदिन नियमानुसार गुरुकी सेवा करता है, अट्ठाईस मूलगुणोंका नियमित ढंगसे पालन करता है, फिर भी वह समग्ररूपसे द्रव्यश्रुतका ज्ञाता नही हो पाता। इसके विपरीत वह 'तुष-मास भिन्न' पाठका घोष करते हुए आत्मस्थ होनेपर केवली तो हो जाता है, फिर भी उसे छद्मस्थ अवस्थामें द्रव्यश्रतकी प्राप्ति नहीं होती। क्यों? क्योंकि उसमें द्रव्यश्रुतको उत्पन्न करनेको योग्यता ही नहीं थी। इसके अतिरिक्त अन्य कोई कारण तो समझ में आता नहीं। इससे कार्योत्पत्तिमें निश्चय उपादानगत योग्यताका क्या स्थान है यह समझमें आ जाता है।
(३) श्रीजयधवलामें तीर्थकर देवाधिदेव भगवान् महावीरको केवलज्ञान होनेपर ६६ दिन तक दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरी इस शंकाको उपस्थित कर श्रीजयधवलामें कहा गया है कि दिव्यध्वनिको पूरी तरहसे ग्रहण करने में समर्थ गणधरके न होनेसे दिव्यध्वनि नहीं खिरी । इसपर पुनः शंका की गई कि देवेन्द्रने उसी समय गणधरको लाकर क्यों उपस्थित नहीं कर दिया ? इसका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि काललब्धिके बिना देवेन्द्र उसी समय गणधरको उपस्थित करनेमें असमर्थ था। जयधवलाका वह उल्लेख इस प्रकार है
दिवसणीए किमट्ट तस्थापउत्तो ? गणिदामावादो। सोहम्मिदेण तक्सणे चेव गणिदो किण ढोइदो ? ण, कालकदीए विणा असहेजस्स देविंदस्स तड्कोयणसत्तीए अभावादो।