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जनसत्वमीमांसा कमको स्वीकार कर उसे अनेकान्तको परिधिमें सम्मिलित करनेका तो प्रयत्न करते हैं, परन्तु आगम ऐसे कल्पित अनेकान्तको मिथ्या अनेकान्तरूपमें ही स्वीकार करता है इतना निश्चित है। वस्तुत: अनेकान्त प्रत्येक वस्तुका स्वरूप है। दो बस्तुओंमे व्यवहारनयको दृष्टिसे जो अनेकान्त कहा जाता है वह मात्र अविनाभाव सम्बन्धको देखकर ही कहा जाता है। ऐसी अवस्थामें निश्चय उपादानके साथ ही बाह्य निमित्तोंकी व्यवस्था बनतो है। इसके सिवाय अन्य प्रकारसे जो भी कल्पना की जायगी वह मिथ्या अनेकान्त ही होगा । यहाँ उन महाशयोंने जिन कल्पित १४ मतोंका निर्देश किया है उनका विशेष ऊहापोह तो हम आगे यथावसर करेंगे हो, यहाँ मात्र संकेत किया है। ५ यथार्थ तथ्योंपर प्रकाश डालनेका उपक्रम
इस प्रकार लौकिक ओर आगमिक प्रमाणोंके बहानेसे कुछ महाशय जो तथ्योको तोड़-मरोड़कर उपस्थित करते हैं वह क्यों ठीक नहीं है इसका विस्तारसे आगम प्रमाणोंको लक्ष्यमे रखकर प्रकृतमे विचार करते हैं | हम पहले ही यह सिद्ध कर आये हैं कि प्रत्येक कार्य अपने निश्चय उपादानके अनुसार ही होता है और जब जो कार्य होता तब अविनाभावसम्बन्यवश उसको सूचक कोई बाह्य सामग्री अवश्य होती है, जिसे कि निमित्त कहा जाता है । यद्यपि जो कार्य प्रयत्नपूर्वक होते है उनमें उनके अनुकूल बाह्य सामग्रीको मिलानेका विकल्प और हस्तादि क्रिया अवश्य होती है, परन्तु कार्यके लिए उपयुक्त बाह्य-आभ्यन्तर सामग्रो क्रमानुपाती ही हुआ करती है। दूसरी बात यह है कि विवक्षित कार्यके लिए प्रयत्न करना अपने स्थान पर है और उसका होना अपने स्थान पर है। ये सब होते है क्रमानुपाती ही। उदाहरणार्थ कई बालक पढ़नेके लिए पाठशाला जाते है और उन्हे अध्यापक मनोयोगपूर्वक पढ़ाता भी है। पढनेमे पुस्तक आदि जो अन्य बाह्य साधन सामग्री निमित्त होती है वह भी उन्हे सुलभ रहती है, फिर भी अपने निश्चय उपादान और तदनुकूल क्षयोपशमके अनुसार कई बालक पढ़ने में तेज होते है, कई मन्द होते हैं, कई/मट्ट होते हैं और कई बाह्य नियमितरूपसे पाठशाला जाकर भी पढ़नेमें असमर्थ रहते है । इसका कारण क्या है ? जिस बाह्य सामग्रोको लोकमें कार्योत्पादक कहनेका प्रघात है वह सबको सुलभ है और वे पढ़ने में परिश्रम भी करते हैं। फिर भी वे एक समान क्यों नहीं पढ़ पाते।
यह कहना कि सबका ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका क्षयोपशम